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चंद्रकांता-4 / बाबू देवकीनन्दन खत्री

चौथा अध्याय

बयान - 1

वनकन्या को यकायक जमीन से निकल कर पैर पकड़ते देख वीरेंद्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहाँ वनकन्या क्यों कर आ पहुँची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं?

आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा - ‘मैं इस वनकन्या को जानता हूँ। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूँ, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकांता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिए इसी खत में, जो आपने दिया है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि मुझसे और कुमारी चंद्रकांता से एक ही दिन शादी हो’ और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकांता ही इस दुनिया से चली गई, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।’

चंद्रकांता-3 / बाबू देवकीनन्दन खत्री

तीसरा अध्याय

बयान - 1

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुँची जिधर आड़ में कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

चंद्रकांता-2 / बाबू देवकीनन्दन खत्री

दूसरा अध्याय

बयान - 1

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा - ‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं।’

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सभी ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुँह की तरफ देखने लगे।

चंद्रकांता-1 / बाबू देवकीनन्दन खत्री

पहला अध्याय

बयान – 1

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंद लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने एक घोड़ा कसा-कसाया दुरुस्त पेड़ से बँधा हुआ है।

उसकी पहली उड़ान / लायम ओ फ़्लैहर्टी



समुद्री चिड़िया का बड़ा हो चुका बच्चा पत्थर के उठे हुए किनारे पर अकेला था। उसकी बहन और उसके दो भाई कल ही उड़ कर जा चुके थे। वह डर जाने की वजह से उनके साथ नहीं उड़ पाया था। जब वह पत्थर के उठे हुए किनारे की ओर दौड़ा था और उसने अपने पंखों को फड़फड़ाने का प्रयास किया था, तब पता नहीं क्यों वह डर गया था। नीचे समुद्र का अनंत विस्तार था, और उठे हुए पत्थर के कगार से नीचे की गहराई मीलों की थी। उसे ऐसा पक्का लगा था कि उसके पंख उसे नहीं सँभाल पाएँगे, इसलिए अपना सिर झुका कर वह वापस पीछे उठे हुए पत्थर के नीचे मौजूद उस जगह की ओर भाग गया था, जहाँ वह रात में सोया करता था। जबकि उससे छोटे पंखों वाली उसकी बहन और उसके दोनों भाई कगार पर जा कर अपने पंख फड़फड़ा कर हवा में उड़ गए थे, वह उस किनारे के बाद की गहराई से डर गया था और वहाँ से कूद कर उड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। इतनी ऊँचाई से कूदने का विचार ही उसे हताश कर दे रहा था। उसकी माँ और उसके पिता तीखे स्वर में उसे डाँट रहे थे। वे तो उसे धमकी भी दे रहे थे कि यदि उसने जल्दी उड़ान नहीं भरी तो पत्थर के उस उठे हुए किनारे पर उसे अकेले भूखा रहना पड़ेगा। लेकिन बेहद डर जाने की वजह से वह अब हिल भी नहीं पा रहा था।

यह सब चौबीस घंटे पहले की बात थी। तब से अब तक उसके पास कोई नहीं आया था। कल उसने अपने माता-पिता को पूरे दिन अपने भाई-बहनों के साथ उड़ते हुए देखा था। वे दोनों उसके भाई-बहनों को उड़ान की कला में माहिर बनने, और लहरों को छूते हुए उड़ने का प्रशिक्षण दे रहे थे। साथ ही वे उन्हें पानी के अंदर मछलियों का शिकार करने के लिए गोता लगाने की कला में पारंगत होना भी सिखा रहे थे। दरअसल उसने अपने बड़े भाई को चट्टान पर बैठ कर अपनी पहली पकड़ी हुई मछली खाते हुए भी देखा था, जबकि उसके माता-पिता उसके बड़े भाई के चारों ओर उड़ते हुए गर्व से शोर मचा रहे थे। सारी सुबह समुद्री चिड़िया का पूरा परिवार उस बड़े पठार के ऊपर हवाई-गश्त लगाता रहा था। पत्थर के दूसरे उठे हुए किनारे पर पहुँच कर उन सब ने उसकी बुजदिली पर उसे बहुत ताने मारे थे।

सूरज अब आसमान में ऊपर चढ़ रहा था। दक्षिण की ओर उठे हुए पत्थर के नीचे मौजूद उसकी बैठने की जगह पर भी तेज धूप पड़ने लगी थी। चूँकि उसे पिछली रात के बाद से खाने के लिए कुछ नहीं मिला था, धूप की गरमी उसे विचलित करने लगी। पिछली रात उसे कगार के पास मछली की पूँछ का एक सूखा टुकड़ा पड़ा हुआ मिल गया था। किंतु अब खाने का कोई कतरा उसके आस-पास नहीं था। उसने चारो ओर ध्यान से देख लिया था। यहाँ तक कि अब गंदगी में लिपटे, घास के सूखे तिनकों से बने उस घोंसले के आस-पास भी कुछ नहीं था जहाँ उसका और उसके भाई-बहनों का जन्म हुआ था। भूख से व्याकुल हो कर उसने अंडे के टूटे पड़े सूखे छिलकों को भी चबाया था। यह अपने ही एक हिस्से को खाने जैसा था। परेशान हो कर वह उस छोटी-सी जगह में लगातार चहलकदमी करता रहा था। बिना उड़ान भरे वह अपने माता-पिता तक कैसे पहुँच सकता है, इस प्रश्न पर वह लगातार विचार कर रहा था, किंतु उसे कोई राह नहीं सूझी। उसके दोनों ओर कगार के बाद मीलों लंबी गहराई थी, और बहुत नीचे गहरा समुद्र था। उसके और उसके माता-पिता के बीच में एक गहरी, चौड़ी खाई थी। यदि वह कगार से उत्तर की ओर चल कर जा पाता, तो वह अपने माता-पिता तक पहुँच सकता था। लेकिन वह चलता किस पर? वहाँ तो पत्थर थे ही नहीं, केवल गहरी खाईं थी! और उसे उड़ना आता ही नहीं था। अपने ऊपर भी वह कुछ नहीं देख पा रहा था क्योंकि उसके ऊपर की चट्टान आगे की ओर निकली हुई थी जिसने दृश्य को ढँक लिया था। और पत्थर के उठे हुए किनारे के नीचे तो अनंत गहराई थी ही, जहाँ बहुत नीचे था - हहराता समुद्र।

वह आगे बढ़ कर कगार तक पहुँचा। अपनी दूसरी टाँग पंखों में छिपा कर वह किनारे पर एक टाँग पर खड़ा हो गया। फिर उसने एक-एक करके अपनी दोनों आँखें भी बंद कर लीं और नींद आने का बहाना करने लगा। लेकिन इस सब के बावजूद उसके माता-पिता और भाई-बहनों ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने अपने दोनों भाइयों और बहन को पठार पर अपना सिर अपने पंखों में धँसा कर ऊँघते हुए पाया। उसके पिता अपनी सफेद पीठ पर मौजूद पंखों को सजा-सँवार रहे थे। उन सब में केवल उसकी माँ ही उसकी ओर देख रही थी। वह अपनी छाती फुलाकर पठार के उठे हुए भाग पर खड़ी थी। बीच-बीच में वह अपने पैरों के पास पड़े मछली के टुकड़े की चीर-फाड़ करती, और फिर पास पड़े पत्थर पर अपनी चोंच के दोनों हिस्सों को रगड़ती। खाना देखते ही वह भूख से व्याकुल हो उठा। ओह, उसे भी मछली की इसी तरह चीर-फाड़ करने में कितना मजा आता था। अपनी चोंच को धारदार बनाने के लिए वह भी तो रह-रह कर उसे पत्थर पर घिसता था। उसने एक धीमी आवाज की। उसकी माँ ने उसकी आवाज का उत्तर दिया और उसकी ओर देखा।

उसने "ओ माँ, थोड़ा खाना मुझ भूखे को भी दे दो" की गुहार लगाई।

लेकिन उसकी माँ ने उसका मजाक उड़ाते हुए चिल्लाकर पूछा, "क्या तुम्हें उड़ना आता है?" पर वह दारुण स्वर में माँ से गुहार लगाता रहा, और एक-दो मिनट के बाद उसने खुश होकर किलकारी मारी। उसकी माँ ने मछली का एक टुकड़ा उठा लिया था, और वह उड़ते हुए उसी की ओर आ रही थी। चट्टान को पैरों से थपथपाते हुए वह आतुर हो कर आगे की ओर झुका, ताकि वह उड़ कर उसके पास आ रही माँ की चोंच में दबी मछली के नजदीक पहुँच सके। लेकिन जैसे ही उसकी माँ उसके ठीक सामने आई, वह कगार से जरा-सा दूर हवा में वहीं रुक गई। उसके पंखों ने फड़फड़ाना बंद कर दिया और उसकी टाँगें बेजान हो कर हवा में झूलने लगीं।

अब उसकी माँ की चोंच में दबा मछली का टुकड़ा उसकी चोंच से बस जरा-सा दूर रह गया था। वह हैरान होकर एक पल के लिए रुका - आखिर माँ उसके और करीब क्यों नहीं आ रही थी? फिर भूख से व्याकुल होकर उसने माँ की चोंच में दबी मछली की ओर छलाँग लगा दी।

एक जोर की चीख के साथ वह तेजी से हवा में आगे और नीचे की ओर गिरने लगा। उसकी माँ ऊपर की ओर उड़ गई। हवा में अपनी माँ के नीचे से गुजरते हुए उसने माँ के पंखों के फड़फड़ाने की आवाज सुनी। तभी एक दानवी भय ने जैसे उसे जकड़ लिया, और उसके हृदय ने जैसे धड़कना बंद कर दिया। उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। पर यह सारा अहसास केवल पल भर के लिए हुआ। अगले ही पल उसने अपने पंखों का बाहर की ओर फैलना महसूस किया। तेज हवा उसकी छाती, पेट और पंखों से टकरा कर गुजरने लगी। उसके पंखों के किनारे जैसे हवा को चीर रहे थे। अब वह सिर के बल नीचे नहीं गिर रहा था, बल्कि हवा में तैरते हुए धीरे-धीरे नीचे और बाहर की ओर उतर रहा था। अब वह भयभीत नहीं था। बस उसे जरा अलग-सा लग रहा था। फिर उसने अपने पंखों को एक बार फड़फड़ाया और वह ऊपर की ओर उठने लगा। खुश होकर उसने जोर से किलकारी मारी और अपने पंखों को दोबारा फड़फड़ाया। वह हवा में और ऊपर उठने लगा। उसने अपनी छाती फुला ली और हवा का उससे टकराना महसूस करता रहा। खुश होकर वह गाना गाने लगा। उसकी माँ ने उसके ठीक बगल से होकर गोता लगाया। उसे हवा से टकराते माँ के पंखों की तेज आवाज अच्छी लगी। उसने फिर एक किलकारी मारी।

उसे उड़ता हुआ देख कर उसके प्रसन्न पिता भी शोर मचाते हुए उसके पास पहुँच गए। फिर उसने अपने दोनों भाइयों और अपनी बहन को खुशी से उसके चारों ओर चक्कर लगाते हुए देखा। वे सब प्रसन्न होकर हवा में तैर रहे थे, गोते लगा रहे थे और कलाबाजियाँ खा रहे थे।

यह सब देखकर वह पूरी तरह भूल गया कि उसे हमेशा से उड़ना नहीं आता था। मारे खुशी के वह भी चीखते-चिल्लाते हुए हवा में तैरने और बेतहाशा गोते लगाने लगा।

अब वह समुद्र की अथाह जल-राशि के पास पहुँच गया था, बल्कि उसके ठीक ऊपर उड़ रहा था। उसके नीचे हरे रंग के पानी वाला गहरा समुद्र था जो अनंत तक फैला जान पड़ता था। उसे यह उड़ान मजेदार लगी और उसने अपनी चोंच टेढ़ी करके एक तीखी आवाज निकाली। उसने देखा कि उसके माता-पिता और भाई-बहन उसके सामने ही समुद्र के इस हरे फर्श-से जल पर नीचे उतर आए थे। वे सब जोर-जोर से चिल्ला कर उसे भी अपने पास बुला रहे थे। यह देखकर उसने भी अपने पैरों को समुद्र के पानी पर उतार लिया। उसके पैर पानी में डूबने लगे। यह देखकर वह डर के मारे चीखा और उसने दोबारा हवा में उड़ जाने की कोशिश की। लेकिन वह थका हुआ था और खाना न मिलने के कारण कमजोर हो चुका था। इसलिए चाह कर भी वह उड़ न सका। उसके पैर अब पूरी तरह पानी में डूब गए और फिर उसके पेट ने समुद्र के पानी का स्पर्श किया। इसके साथ ही उसकी देह का पानी में डूबना रुक गया। अब वह पानी पर तैर रहा था। और उसके चारों ओर खुशी से चीखता-चिल्लाता हुआ उसका पूरा परिवार जुट आया था। वे सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे, और अपनी चोंचों में ला-ला कर उसे खाने के लिए मछलियों के टुकड़े दे रहे थे।

उसने अपनी पहली उड़ान भर ली थी।

फोन काल्स / रोबेर्तो बोलान्यो



बी, एक्स का प्रेमी है। दुखी होकर भी, बेशक। जैसा कि हरेक प्यार करने वाला कहता और सोचता है, बी भी अपने जीवन के एक खास दौर में एक्स के लिए कुछ भी कर सकता था। एक्स उससे नाता तोड़ लेती है। एक्स यह काम फोन पर करती है। पहले तो, जाहिर तौर पर बी टूट सा जाता है, लेकिन बाद मे जैसा कि अकसर ही होता है वह इससे उबरने में भी कामयाब रहता है।

एक रात जब बी के पास करने को और कुछ भी नहीं होता, दो बार रिंग कर लेने के बाद, वह एक्स से संपर्क कायम कर लेता है। दोनों में से कोई भी अब जवान नहीं है, और स्पेन के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच रही उनकी आवाजों में उनकी उम्र साफ साफ सुनाई देती है। दोस्ती फिर से दुरुस्त हो जाती है और वे कुछ ही दिनों में मिलने का भी फैसला कर लेते हैं। दोनों ही पक्ष तलाक, नई बीमारियों और कुंठाओं के दौर से होकर गुजर चुके हैं। बी जिस वक्त ट्रेन पकड़ता है और एक्स के शहर की ओर बढ़ने लगता है, तब तक वह प्यार के जज्बात से बचा रहता है। पहला दिन वे एक्स के घर में बंद से रहकर, बातें करते हुए बिताते हैं (बोलने का काम, असल में, सिर्फ एक्स करती है, बी उसे चुपचाप सुनता रहता है और कभी कभार कुछ पूछ लेता है); रात होने पर एक्स उसे अपने साथ सोने को आमंत्रित करती है। बी की ऐसी कोई इच्छा नहीं होती कि वह एक्स के साथ सोए, लेकिन फिर भी वह राजी हो जाता है। अगली सुबह, उठने पर, बी फिर से प्यार में है। पर यह प्यार एक्स से है या केवल प्यार करने के विचार से। रिश्ता काफी कठिन और जटिल हो जाता है; एक्स हर दिन आत्महत्या के लिए तत्पर रहती है और उसकी मनोचिकित्सा चल रही होती है (टैबलेट्स, ढेर सारे टैबलेट्स, जो किसी भी तरीके से उसकी मदद नहीं करते), वह अकसर ही, बिना किसी वजह के रोने लगती है। बी, एक्स की देखभाल करने लगता है। एक्स की देखभाल को लेकर उसकी लगन और उसका स्नेह बहुत ज्यादा होता है, लेकिन यह थोड़ा अजीब भी लगता है। बी को जल्द ही ऐसा भान होता है कि उसका खयाल रखना किसी सच्चे प्रेमी के खयाल रखने की नकल जैसा है। वह एक्स को इस अवसाद से उबरने की राह दिखाता है, लेकिन बी का ऐसा कुछ भी करना एक्स को एक बंद गली में बढ़ते जाने देना होता है, या फिर एक्स ही इसे बंद गली में आगे का सफर समझती है। कभी कभी, जब वह खुद में खोया होता है, या फिर एक्स को सोते देखता है, तो उसे लगता है कि बंद गली की तरह यह भी एक अंत ही है। इन सब के प्रतिकार के तौर पर, वह अपने पुराने प्यार को याद करता है, यूँ खुद को समझाना चाहता है कि वह एक्स के बिना भी रह सकता है, अकेले रह कर भी जी सकता है। एक रात एक्स उससे चले जाने को कहती है, इसलिए वह एक ट्रेन पकड़ता है और शहर छोड़ देता है। एक्स स्टेशन तक उसे छोड़ने के लिए जाती है। काफी नाजुक से क्षणों वाली यह विदाई किसी भी नई चीज की उम्मीद नहीं जगाती। बी एक स्लीपर दर्जे का टिकट ले रखा होता है लेकिन उसे काफी देर तक नींद नही आती। आखिरकार जब वह सोता है तो एक सपना देखता है, रेगिस्तान के बियाबान में टहल रहे एक उजले हिममानव का। वह हिममानव एक सीमांत पर चलता है और शायद किसी मुसीबत की ओर बढ़ रहा होता है। लेकिन फिर भी वह चला ही जाता है, अपने शातिर होने से आलंब लेता हुआ; वह रात में चल रहा होता है, जब बर्फ की ही मानिंद उजले सितारे रेगिस्तान को धो रहे होते हैं। बी जिस वक्त जागता है (ट्रेन तब तक बार्सेलोना के सांत्स शहर में पहुँच चुकी रहती है।) उसे लगता है कि उसे रात में देखे सपने का अर्थ (अगर सचमुच कोई अर्थ है, तो) पता है और इस बात से थोड़ी सांत्वना मिलने पर घर को चला जाता है। उस रात वह एक्स को फोन करता है और सपने की बात बताता है। एक्स कुछ भी नहीं कहती। अगले दिन वह एक्स को फिर से रिंग करता है। और उसके भी अगले दिन। एक्स का रवैया दिन ब दिन ठंडा पड़ता जाता है, मानो बी हर फोन काल के साथ फिर से उनके अतीत में घुसता चला जा रहा हो। बी को लगता है कि वह गायब होता जा रहा है। कि एक्स को पता है कि वह क्या और क्यों कर रही है, और वह बी को खतम करती जा रही है। एक रात बी उसे ट्रेन पकड़कर अगली ही सुबह उसके घर पहुँच जाने की धमकी दे डालता है। एक्स कहती है कि कभी ऐसा सोचना भी मत। बी कहता है कि वह आ रहा है, और अब वह इन फोन काल्स के भरोसे नहीं रह सकता, और एक्स से बातें करते हुए, वह उसका चेहरा अपने ठीक सामने पाना चाहता है। एक्स कहती है कि वह दरवाजा नहीं खोलेगी, और फोन काट देती है। बी कुछ समझ नहीं पाता। लंबे समय तक वह यही सोचता रहता है कि भावनाएँ और इच्छाएँ इस तरह एक चरम से दूसरे चरम तक कैसे पहुँच सकती हैं। फिर वह पीना शुरू करता है, और खुद को किताबों में खो देने की कोशिश करने लगता है। दिन बीतने लगते हैं।

छह महीने बाद, एक रात, बी एक्स को फोन लगाता है। एक्स आवाज को पहचान जाती है। अरे, तुम! वह बोलती है। एक्स का ठंडा रवैया बात करते हुए जाता रहता है। बी को लगता है कि एक्स उससे कुछ कहना चाहती है - वह मुझे यूँ सुनती जा रही है कि जैसे चुप्पी से भरा यह लंबा समय कभी बीता ही न हो, बी सोचता है, कि जैसे हम दोनों ने पिछली दफा कल ही बात की हो - बी पूछता है, कैसी हो? कुछ अधटूटे जवाबों के बाद एक्स फोन काट देती है। हैरान सा बी, फिर से उसका नंबर मिलाता है। फोन उठा लिए जाने के बाद वह चुप ही रहने का फैसला करता है। उधर से एक्स की आवाज आती है, कौन? चुप्पी। एक्स कहती है कि वह सुन रही है और जवाब का इंतजार करती है। फोन लाइन से होकर वक्त गुजरता जाता है - वक्त जो बी और एक्स के बीच चला आया, और बी जिसे नहीं समझ पाया - खुद को सिकोड़ और फैलाकर, अपना एक सच बताते हुए। इस बात का एहसास किए बिना ही, बी रोने लगता है। उसे पता होता है कि एक्स जान रही है कि फोन किसने किया था। फिर, चुपचाप, वह फोन काट देता है।

यहाँ तक यह एक अदना सी कहानी है; दुर्भाग्यवश, लेकिन बिलकुल ही साधारण। बी को इस बात का पूरा एहसास है कि उसे दुबारा एक्स को फोन नहीं करना चाहिए। एक दिन दरवाजे पर दस्तक होती है; यह ए और जेड का आना है। दोनों पुलिस के आदमी हैं और बी से कुछ सवाल करना चाहते हैं। बी जानना चाहता है कि पूछताछ का वास्ता किस सिलसिले में है? ए बताने को तैयार होता है लेकिन जेड, फूहड़पन के साथ इधर उधर की भूमिका बनाने लगता है, आखिरकार मुद्दे पर आता है, स्पेन के दूसरे छोर पर आज से तीन दिन पहले, किसी ने एक्स को मार डाला। पहले तो, बी स्तब्ध रह जाता है; फिर उसे एहसास होता है कि वह शक के दायरे में है और खुद पर खतरे का बोध उसे अपने बचाव की स्थिति में ला देता है। पुलिसवाले उससे खास दो दिनों की उसकी गतिविधि के बारे में पूछते हैं। बी को याद नहीं आता कि उसने उन दो दिनों में क्या किया और किसे देखा है। लेकिन, जाहिर तौर पर, उसे इतना पता है कि वह बार्सेलोना से बाहर नहीं गया है - सच कहे तो अपने पड़ोस में भी नहीं, यहाँ तक कि अपने फ्लैट से भी बाहर नहीं - लेकिन वह इसे साबित नहीं कर सकता। पुलिसवाले उसे अपने साथ लिए जाते हैं। वह पूरी रात पुलिस स्टेशन पर गुजारता है। पूछताछ के दौरान, एक खास समय में उसे लगता है कि वे उसे उस शहर में ले जाएँगे जहाँ एक्स रहती थी, और यह बात अजीब तरीके से उसके भीतर एक कुतूहल जगाती है, लेकिन आखिरकार, ऐसा नहीं होता। वे उसका फिंगरप्रिंट्स लेते हैं और पूछते हैं कि क्या वह ब्लड टेस्ट के लिए राजी है? वह राजी हो जाता है। अगली सुबह वे उसे वापस घर जाने देते हैं। आधिकारिक तौर पर बी हिरासत से बाहर हो जाता है; वह सिर्फ एक हत्या के मामले की पूछताछ में पुलिस का मददगार है। वापस घर जाने पर, वह बिस्तर पर कटे पेड़ सा गिर जाता है और गहरी नींद में चला जाता है। वह सपने में एक रेगिस्तान और एक्स का चेहरा देखता है। जागने से ठीक पहले उसे एहसास होता है कि वो दोनों एक जैसे ही हैं, या फिर एक ही हैं। इससे यह भाँप लेना आसान हो जाता है कि वह रेगिस्तान में खोया हुआ है।

रात में वह एक बैग में कुछ कपड़े समेटता है, स्टेशन जाता है, और उस शहर के लिए ट्रेन पकड़ लेता है जहाँ कि एक्स रहा करती थी। स्पेन के एक से दूसरे छोर तक की उस यात्रा में पूरी रात लग जाती है। वह सो नहीं पाता और उन सभी चीजों के बारे में सोचता रहता है जो वह कर सकता था, लेकिन कर नहीं पाया; हर उस चीज के बारे में भी, जो वह एक्स को दे सकता था, लेकिन दे नहीं पाया। वो यह भी सोचता है; अगर मैं मरा होता तो एक्स इस तरह से, स्पेन के एक से दूसरे छोर तक, इसकी उल्टी दिशा में यात्रा नहीं कर रही होती। आगे उसे यह खयाल आता है; कि ठीक यही वजह है कि मैं अब तक जिंदा हूँ। नींद से खाली उस सफर में, यूँ पहली बार उसे अपने लिए एक्स का सच्चा महत्व नजर आता है; उसे एक्स पर फिर से प्यार आने लगता है, और आखिरी बार, आधे दिल से ही सही, वह खुद से नफरत करने लगता है। जब वह पहुँचता है, तड़के सुबह, वह सीधा एक्स के भाई के घर पहुँचता है। एक्स के भाई को आश्चर्य होता है, वह चकरा सा जाता है, लेकिन बी को अंदर बुलाकर एक काफी की पेशकश करता है। बी गौर करता है कि वह नहाया नहीं है। उसने सिर्फ अपना चेहरा धोया है और बालों को गीला कर लिया है। बी काफी की पेशकश कबूल कर लेता है, और कहता है कि उसने हाल ही में एक्स की हत्या के बारे में सुना, वह पुलिस द्वारा खुद से की गई पूछताछ के बारे में उसे तफसील देता है, और पूछता है कि आखिर हुआ क्या था? किचेन में कॉफी तैयार करते हुए एक्स का भाई जवाब देता है, सब कुछ बेहद दुखद रहा, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि इन सब से तुम्हारा क्या लेना देना हो सकता है? बी बताता है कि पुलिस हत्यारे के रूप में उस पर शक कर रही है। एक्स का भाई हँसते हुए कहता है, तुम्हारी किस्मत हमेशा से ही खराब रही है? बी सोचता है, जब कि मैं फिर भी जिंदा ही हूँ, तुम्हारा ऐसा कहना अजीब है। लेकिन बी एक्स के भाई के लिए भीतर ही भीतर कृतज्ञ भी होता है कि उसकी निर्दोष होने पर शक नहीं किया गया। एक्स का भाई, उसे घर में छोड़कर काम पर चला जाता है। थका हुआ बी जल्द ही गहरी नींद में खो जाता है। बिना किसी आश्चर्य के, एक्स फिर से उसके सपने में दिख जाती है।

जब वह उठता है, उसे लगता है कि वह कातिल के बारे में जान गया है। उसने उसका चेहरा देखा हुआ है। उस रात वह एक्स के भाई के साथ बाहर जाता है। वे कई सारे बार घूमते हैं, और इधर उधर की तमाम बातें करते हुए पीकर धुत हो जाना चाहते हैं, लेकिन हो नहीं पाते। सुनसान गलियों से होकर घर की ओर वापस आते हुए बी कहता है कि एक बार उसने एक्स को फोन किया था और फोन पर कुछ बोला नहीं था। आखिर क्यों, एक्स का भाई पूछता है। मैंने बस एक ही बार ऐसा किया था, बी जवाब देता है। पर मुझे लगता है कि एक्स के पास उस तरह के ढेर सारे फोन आए होंगे। और उसे लगा होगा कि वे सारे फोन मैंने किए थे, समझे? तो तुम्हारा मतलब है कि मारने वाला कोई अज्ञात शख्स है, जो फोन किया करता था? बिलकुल, बी जवाब देता है। और एक्स ने सोचा कि वह मैं था। एक्स का भाई त्यौरी चढ़ा लेता है। मुझे लगता है कि यह उसके पहले के प्रेमियों में से ही कोई था, जैसा कि तुम जानते ही हो, उसके कई सारे प्रेमी थे। बी कोई जवाब नहीं देता (मानो एक्स के भाई की समझ में कुछ आया ही न हो) और घर पहुँच जाने तक दोनों चुप ही रहते हैं।

लिफ्ट में ही, बी की इच्छा जोर से उल्टी करने की होती है। वह बोल पड़ता है कि मैं उल्टी करने वाला हूँ। रुको, एक्स का भाई बोलता है। वे झट से नीचे के गलियारे में उतरते हैं। एक्स का भाई दरवाजा खोलता है, बी बाथरूम की खोज में भागता है। लेकिन जैसे ही वह बाथरूम में में पहुँचता है, उसकी मितली शांत हो जाती है। वह पसीने पसीने हो जाता है और उसका पेट दुखने लगता है, लेकिन वह उल्टी नहीं कर पाता। उपर से ढक्कन लगा शौचालय उसे खुद की हालत पर हँसते हुए बिना दाँतों वाले किसी मुँह की तरह लगता है। या फिर किसी और पर ही हँसता हुआ मुँह, जो कुछ भी हो। अपना मुँह धो लेने के बाद, वह आईने में अपना चेहरा देखता है; उसका चेहरा कागज के पन्ने की तरह सफेद है। वह बची खुची रात को इधर उधर ऊँघते हुए और एक्स के भाई के खर्राटे सुनकर बिताता है। अगले दिन वे एक दूसरे को अलविदा कहते हैं और बी वापस बार्सेलोना चला आता है। बी सोचता है कि वह फिर से कभी उस शहर में वापस नहीं जाएगा, क्योंकि अब वहाँ एक्स नहीं रही।

एक सप्ताह बाद, एक्स का भाई उसे यह बताने के लिए फोन करता है कि पुलिस ने हत्यारे को खोज लिया है। वह बताता है, हत्यारा एक्स को गुमनाम फोन काल्स करके प्रताड़ित करता था। बी कोई उत्तर नहीं देता। एक पुराना प्रेमी, एक्स का भाई बोलता है। अच्छा लगा जानकर, बी जवाब देता है। इत्तेला करने के लिए धन्यवाद। अंत में एक्स का भाई फोन रख देता है और बी अकेला रह जाता है।

( बोलान्‍यो के कहानी संग्रह ' लास्‍ट ईवनिंग ऑन अर्थ' से)

भाग्य / मार्क ट्वेन



यह एक फैंसी स्केच नहीं है। मुझे यह एक पादरी से मिला, जो चालीस साल पहले वूलविच में प्रशिक्षक था और अपनी सच्चाई के लिए जाना जाता था।

इस पीढ़ी के दो या तीन सुस्पष्ट शानदार अंग्रेजी सैनिकों में से एक के सम्मान में लंदन में रात्रिभोज था। वर्तमान में दिखाई देने वाले कारणों से मैं उसका असली नाम और उपाधि रोके रखूँगा और मैं उसे लेफ्टिनेंट जनरल लॉर्ड आर्थर स्कोर्स्बी, वी सी, के सी बी आदि आदि पुकारूँगा। प्रसिद्ध नाम में कितना आकर्षण होता है! कहते हैं तीस वर्ष पहले उसे हमेशा के लिए अमर कर देने हेतु क्रीमियन युद्ध क्षेत्र से उसका नाम अचानक चरम पर उठा, जिसके बारे में मैंने उस दिन से हजारों बार सुना था।

मुझे खाने, पीने का देखना था, अर्द्ध-ईश्वर को देखना था स्कैनिंग, खोज, टिप्पण : वैराग्य, सुरक्षा, उसकी मुखाकृति के महान गुरुत्वाकर्षण; उसकी सरल ईमानदारी, जिससे वह ओतप्रोत था, उसकी महानता की मधुर बेसुधी - उसको निहारने वाली सैकड़ों आँखों की बेसुधी, लोगों की छाती से निकलने वाली और उसकी तरफ प्रवाहित होने वाली गहरी, प्रेमपूर्ण औए ईमानदार पूजा की बेसुधी को देखना था।

मेरी बाईं तरफ वाला पादरी मेरा पुराना परिचित था - लेकिन अब पादरी है, जिसने अपने जीवन का पहला आधा भाग शिविर और खेतों में एवं वूलविच में सैनिक स्कूल में प्रशिक्षक के रूप में बिताया। उसी क्षण जब मैं इस बारे में बात कर रहा था, एक छिपी और विलक्षण रोशनी उसकी आँखों में चमकी और वह नीचे झुका और मुझे धीरे से रहस्य बताया - इशारे से रात्रि भोज के नायक की ओर संकेत करते हुए, - गुप्त रूप से - उसकी महिमा एक संयोग है - मात्र अविश्वसनीय भाग्य का एक फल।

यह फैसला मेरे लिए एक महान आश्चर्य था। यदि नेपोलियन, या सुकरात, या सोलोमन इसके विषय होते, तो मुझे अधिक आश्चर्य नहीं होता।

कुछ दिन बाद इस अजीब टिप्पणी पर एक स्पष्टीकरण आया और उस सम्मानित सज्जन ने मुझे यह बताया।

चालीस साल पूर्व मैं वूलविच में सैन्य अकादमी में एक प्रशिक्षक था। युवा स्कोर्सबी की प्रारंभिक परीक्षा लिए जाने पर मैं एक वर्ग में मौजूद था। मैं शीघ्र ही दया आ गई, क्योंकि शेष कक्षा ने उल्लसित और सुंदरतापूर्वक उत्तर दिए, जबकि वह कुछ भी नहीं जानता था, जो मुझे पता नहीं क्यों इतना प्यारा था। वह प्रत्यक्षतः अच्छा, मधुर, प्यारा और भोला था, इसलिए उसको वहाँ एक शांत बुत के रूप में खड़े हुए देखना एवं मूर्खता और अज्ञानता के अजीब उत्तर देते हुए देखना बहुत दर्दनाक था। मुझमें उसके लिए दया उमड़ पड़ी। मैंने खुद से कहा, जब वह फिर से परीक्षा के लिए आएगा, उसे निश्चित रूप से, धकेल दिया जाएगा, इसलिए उसके पतन को कम करने के लिए यह परोपकार का एक हानिरहित कार्य होगा।

मैं उसे एक तरफ ले गया और मैंने पाया कि वह सीजर का कुछ इतिहास जानता है और चूँकि वह कुछ और नहीं जानता था, मैं काम पर चला गया और मैंने उसे सीजर के बारे में स्टॉक में सवालों की एक निश्चित लाइन पर एक गैली दास की तरह उसका प्रयोग किया। यदि आप मेरा विश्वास करें, तो परिक्षा के दिन वह रंगीन उड़ान भर रहा था। सतही तौर पर वह पूर्ण रूप से रट रहा था और उसे प्रशंसा भी मिली, जबकि अन्य, जो उससे हजार गुना अधिक जानते थे बच गए। अजीब भाग्यशाली संयोग के कारण - जिसकी एक शती में दुबारा घटने की संभावना नहीं है - अपनी कवायद की संकीर्ण सीमा के बाहर उससे कोई सवाल नहीं पूछा गया था।

यह मादक था। खैर, पाठ्यक्रम के माध्यम से मैं उसके साथ था, जाहिर तौर पर।

बस चमत्कार से, उस भावना के साथ जो एक माँ अपने अपंग बच्चे के लिए रखती है और उसने हमेशा खुद को बचाया।

निस्संदेह जो चीज उसे सबसे अधिक बेनकाब करेगी और और अंत में मार डालेगी, वह है - गणित। मैंने उसकी मौत को आसान बनाने का संकल्प लिया, इसलिए मैंने उसे मात्र उन प्रश्नों का प्रशिक्षण दिया और याद कराया, जिसकी परीक्षक द्वारा सर्वाधिक प्रयोग किए जाने की संभावना है और तब मैंने उसे उसके भाग्य पर छोड़ शुभारंभ किया। अच्छा श्रीमन, परिणाम को समझने का प्रयास करें। मेरी आश्चर्यजनक जानकारी के अनुसार उसे प्रथम पुरस्कार मिला। और तारीफ के साथ साथ ही उसकी पूर्ण जय जयकार हुई।

सो जाओ! एक सप्ताह से मुझे अधिक नींद नहीं थी। मेरी अंतरात्मा मुझे दिन रात तड़पा रही थी। मैंने जो भी किया, विशुद्ध परोपकार के नाम पर किया और उस बेचारे युवक के पतन को सहज बनाने के उद्देश्य से किया। मैंने कभी भी ऐसे निरर्थक परिणाम को सपने में भी नहीं सोचा, जैसा कि यह हुआ है। मैंने फ्रेंकस्टीन के निर्माता की तरह ही स्वयं को दोषी और दयनीय महसूस किया। एक काष्ठ का मस्तिष्क था, जिसे मैंने शानदार प्रोन्नति एवं अस्वाभाविक उत्तरदायित्वों के मार्ग में डाल दिया था। लेकिन एक बात यह भी हो सकती थी कि पहले मौके पर ही वह और उसके उत्तरदायित्व सब कुछ एक साथ बर्बाद कर दिए हों।

क्रीमिया युद्ध तभी शुरू हुआ था। बेशक युद्ध होना था। मैंने खुद से कहा : हम शांति कायम नहीं कर सके और पता लगाने से पहले हम इस गधे को मरने का मौका नहीं दे सकते। मैंने भूकंप का इंतजार किया। भूकंप आया। जब यह आया, मुझे चक्कर आया। वह वास्तव में एक मार्चिंग रेजिमेंट में एक राजपत्रित कप्तान था! इस तरह की महानता पर चढने से पहले बेहतर है कि मनुष्य सेवा में बूढ़ा हो जाए। और कौन यह सोच सकता होगा कि वे ऐसे अपरिपक्व अनुभवहीन और अपर्याप्त कंधों पर उत्तरदायित्व का ऐसा बोझ लाद देंगे। मैंने इसे मुश्किल से खड़ा किया होता, यदि उन्होंने उसे एक ध्वजवाहक बनाया होता लेकिन एक कप्तान - इसके बारे में सोचो। मैंने सोचा कि मेरे बाल सफेद हो जाएँगे।

सोचो मैंने क्या किया - मैं जो विश्राम और निष्क्रियता से इतना प्यार करता हूँ। मैंने स्वयं से कहा, इसके लिए मैं देश के प्रति जिम्मेदार हूँ और मुझे उसके साथ जाना चाहिए और जहाँ तक कर सकता हूँ, मुझे देश की रक्षा करनी चाहिए। इसलिए मैंने अपनी थोड़ी सी जमा पूँजी साथ ली, जिसे मैंने कार्य एवं कष्टकर अर्थव्यवस्था के वर्षों में बचाया था और एक साँस के साथ चला गया और उसकी रेजिमेंट में एक तुरही खरीदी और हम दूर खेतों में चले गए।

और वहाँ, ओ प्रिय, भयानक था। गलतियाँ?? उसने गलतियों के अतिरिक्त और कुछ क्यों नहीं किया। लेकिन आप देखें, कोई भी साथी के राज में नहीं था - हर व्यक्ति ने उस पर गलत ध्यान केंद्रित किया और हर बार उसके कार्यनिष्पादन की अनावश्यक रूप से गलत व्याख्या की। परिणामतः उन्होंने उसकी मूर्खतापूर्ण भूलों को प्रतिभा की प्रेरणा के रूप में लिया। उसकी छोटी भूलें भी आदमी को उसके सही मन में रुला देने के लिए पर्याप्त थीं और उन्होंने मुझे भी रुला दिया, निजी तौर पर क्रोध और निंदा भी की। और जिस चीज की आशंका ने मुझे हमेशा परेशान किया, वह यह तथ्य था कि उसके द्वारा की गई हर नई गलती प्रतिष्ठा की चमक को बढ़ा देती थी। मैं स्वयं से कहता रहा वह इतना ऊँचा जाएगा कि जब अंत में वह प्रकट होगा तो यह आकाश से निकल रहे सूर्य की तरह होगा।

वह सीढ़ी दर सीढ़ी सीधा ऊपर गया, अपने वरिष्ठ अधिकारियों के मृत शरीरों पर, जब तक कि अंत में युद्ध के गर्म क्षणों में हमारा कर्नल नीचे चला गया और मेरा हृदय मेरे मुँह को आ गया, क्योंकि स्कोर्सबी रैंक में दूसरा था। मैंने कहा; अब इसके लिए दस मिनट में हम सब लोग अवश्य ही अधोलोक में उतरेंगे।

युद्ध भयानक रूप से उत्तेजक था। सहयोगी दल क्षेत्रों के ऊपर लगातार ढह जा रहे थे। हमारी रेजीमेंट ने एक महत्वपूर्ण स्थान पर कब्जा किया। विनाश अब बड़ी भूल होना चाहिए। इस क्षण में यह अमर मूर्ख रेजीमेंट को अपने स्थान से हटाने के अलावा और क्या करता है और एक पड़ोसी पहाड़ी पर एक प्रभारी को आदेश देता है, जहाँ दुश्मन का एक सुझाव तक नहीं था। मैंने खुद से कहा : "तुम वहाँ जाओ, आखिरकार अंत आ ही गया।"

और हम दूर चले गए, और उन्मादी आंदोलन की खोज की जाने और इसे रोके जाने से पहले हम पहाड़ी पर थे। और हमें क्या मिला? सुरक्षित स्थान पर एक संपूर्ण और असंदिग्ध रूसी सेना! और क्या हुआ? हमें खत्म कर दिया गया? यही कारण है जो एक सौ में से निन्यानबे मामलों में जरूर हुआ होगा। लेकिन नहीं; उन रूसियों ने बहस की, कि ऐसे समय में वहाँ आसपास कोई भी रेजिमेंट ब्राउजिंग नहीं आएगा। यह संपूर्ण अंग्रेजी सेना होनी चाहिए, और धूर्त रूसी खेल का पता चला और उसे अवरुद्ध किया गया; इसलिए वे दम दबाए रहे और हक्के बक्के से पहाड़ी पर और नीचे खेत में दूर चले गए और हम उनके पीछे, उन्होंने खुद ठोस रूस केंद्र तोड़ दिया, और कुछ ही समय में दुनिया की सबसे जबरदस्त भगदड़ वहाँ थी और सहयोगी दलों की हार एक व्यापक और शानदार जीत में बदल गई थी! मार्शल कानरोबर्ट ने विस्मय, प्रशंसा, और खुशी के साथ देखा; और स्कोर्सबी के लिए तुरंत बाहर आया, उसे गले लगाया, और सभी सेनाओं की मौजूदगी में मैदान पर उसे सजाया!

और उस समय स्कोर्सबी की गलती क्या थी? केवल अपने दाहिने हाथ को बाएँ हाथ के लिए समझना - उसके पास मैदान छोड़ने के लिए और हमारे अधिकार का समर्थन करने के लिए एक आदेश आया; और इसके बजाय वह आगे गिर गया और बाईं ओर पहाड़ी के ऊपर चला गया। लेकिन उस दिन अपनी अद्भुत सैन्य प्रतिभा की महिमा के साथ दुनिया भर में उसने जो नाम कमाया, वह महिमा इतिहास की पुस्तकों के रहते कभी भी क्षीण नहीं होगी।

वह इतना अच्छा और मधुर, प्यारा और सच्चा है, जितना कि एक आदमी हो सकता है, लेकिन वह बारिश में अंदर आना नहीं जानता। दिन प्रतिदिन वर्ष प्रति वर्ष वह सबसे अद्भुत और आश्चर्यजनक नियति से लगा हुआ है। आधी पीढ़ी के लिए हमारे सभी युद्धों में वह एक चमकता हुआ सैनिक रहा है; उसने भूलों के साथ अपने सैन्य जीवन का कबाड़ा किया है, और अभी तक कुछ भी ऐसा नहीं किया जिसने उसे एक नाइट या एक बरानेत या एक भगवान या कुछ और नहीं बना दिया। उसकी छाती को देखो; यही कारण है कि वह सिर्फ घरेलू और विदेशी सजावट में कपड़े पहने है। खैर, श्रीमान, उनमें से हर एक में शोर करती मूर्खता या इसी तरह की बातों का एक रिकार्ड है; और एक साथ मिलाकर वे इस बात का प्रमाण हैं, कि इस दुनिया में सबसे बेहतरीन चीज है भाग्यशाली मनुष्य के रूप में जन्म लेना।

एक पाठक / मक्सिम गोर्की



रात काफी हो गयी थी जब मैं उस घर से विदा हुआ जहाँ मित्रों की एक गोष्ठी में अपनी प्रकाशित कहानियों में से एक का मैंने अभी पाठ किया था । उन्होंने तारीफ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और मैं धीरे-धीरे मगन भाव से सड़क पर चल रहा था, मेरा हृदय आनंद से छलक रहा था और जीवन के एक ऐसा सुख का अनुभव मैं कर रहा था जैसा पहले कभी नहीं किया था ।


फरवरी का महीना था, रात साफ थी और खूब तारों से जड़ा मेघरहित आकाश धरती पर स्फूर्तिदायक शीतलता का संचार कर रहा था, जो नई गिरी बर्फ से सोलहों सिंगार किये हुए थी ।
'इस धरती पर लोगों की नजरों में कुछ होना अच्छा लगता है!' मैंने सोचा और मेरे भविष्य के चित्र में उजले रंग भरने में मेरी कल्पना ने कोई कोताही नहीं की ।
"हां, तुमने एक बहुत ही प्यारी-सी चीज लिखी है, इसमें कोई शक नहीं," मेरे पीछे सहसा कोई गुनगुना उठा,
मैं अचरज से चौंका और घूमकर देखने लगा,
काले कपड़े पहने एक छोटे कद का आदमी आगे बढ़कर निकट आ गया और पैनी लघु मुस्कान के साथ मेरे चेहरे पर उसने अपनी आंखें जमा दीं, उसकी हर चीज पैनी मालूम होती थी-उसकी नजर, उसके गालों की हड्डियां, उसकी दाढ़ी जो बकरे की दाढ़ी की तरह नोकदार थी, उसका समुचा छोटा और मूरझाया-सा ढांचा, जो कुछ इतना विचित्र नोक-नुकीलापन लिये था कि आंखों में चुभता था, उसकी चाल हल्की और निःशब्द थी, ऐसा मालूम होता था जैसे वह बर्फ पर फिसल रहा हो, गोष्ठी में जो लोग मौजूद थे, उनमें वह मुझे नजर नहीं आया था ओर इसीलिए उसकी टिप्पणी ने मुझे चकित कर दिया था, वह कौन था ? और कहां से आया था ?

"क्या आपने...मतलव ...मेरी कहानी सुनी थी ? मैंने पूछा
"हां, मुझे उसे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।"
उसकी आवाज तेज थी, उसके पतले होंठ और छोटी काली मुछें थी जो उसकी मुस्कान को नहीं छिपा पाती थीं। मुस्कान उसके होंठो से विदा होने का नाम ही नहीं लेती थी और यह मुझे बड़ा अटपटा मालूम हो रहा था ।
"अपने आपको अन्य सबसे अनोखा अनुभव करना बड़ा सुखद मालूम होता है, क्यों, ठीक है न ?" मेरे साथी ने पूछा,
मुझे इस प्रश्न में ऐसी कोई बात नहीं लगी जो असाधारण हो ,सो मुझे सहमति प्रकट करने में देर नहीं लगी ।
"हो-हो-हो!" पतली उगलियों से अपने छोटे हाथों को मलते हुए वह तीखी हंसी हंसा, उसकी हंसी मुझे अपमानित करने वाली थी ।

"तुम बड़े हंसमुख जीव मालूम होते हो," मैंने रूखी आवाज में कहा, "अरे हाँ, बहुत !" मुस्काराते और सिर हिलाते हुए उसने ताईद की, "साथ ही मैं बाल की खाल निकालने वाला भी हूं क्योंकि मैं हमेशा चीजों को जानना चाहता हूं-हर चीज को जानना चाहता हूं।"
वह फिर अपनी तीखी हंसी हँसा और वेध देने वाली अपनी काली आंखों से मेरी ओर देखता रहा, मैंने अपने कद की ऊंचाई से एक नज़र उस पर डाली और ठंडी आवाज में पूछा, "माफ करना लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि मुझे किससे बातें करने का सौभाग्य ...."
"मैं कौन हूँ ? क्या तुम अनुमान नहीं लगा सकते ? जो हो, मैं फिलहाल तुम्हें आदमी का नाम उस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होता है जो कि वह कहने जा रहा है ?"
"निश्चय ही नहीं, लेकिन यह कुछ ... बहूत ही अजीब है," मैंने जवाब दिया ।

उसने मेरी आस्तीन पकड़ कर उसे एक हल्का-सा झटका दिया और शांत हँसी के साथ कहा, "होने दो अजीब, आदमी कभी तो जीवन की साधारण और घिसी-पिटी सीमाओं को लाँघना चाहता ही है, अगर एतराज न हो तो आओ, जरा खुलकर बातें करें, समझ लो कि मैं तुम्हारा एक पाठक हूँ-एक विचित्र प्रकार का पाठक, जो यह जानना चाहता है कि कोई पुस्तक-मिसाल के लिए तुम्हारी अपनी लिखी हुई पुस्तकें-कैसे और किस उद्देश्य के लिए लिखी गयी है, बोलो, इस तरह की बातचीत पसंद करोगे ?"
"ओह, जरूर !" मैंने कहा, "मुझे खुशी होगी, ऐसे आदमी से बात करने का अवसर रोज-रोज नहीं मिलता," लेकिन मैंने यह झूठ कहा था, क्योंकि मुझे यह सब बेहद नागवार मालूम हो रहा था, फिर भी मैं उसके साथ चलता रहा-धीमे कदमों से, शिष्टाचार की ऐसी मुद्रा बनाये, मानो मैं उसकी बात ध्यान से सून रहा हूँ ।
मेरा साथी क्षण भर के लिए चुप हो गया और फिर बड़े विश्वासपूर्ण स्वर में उसने कहा, "मानवीय व्यवहार में निहित उद्देश्यों और इरादों से ज्यादा विचित्र और महत्वपूर्ण चीज इस दुनिया में और कोई नहीं है, तुम यह मानते हो न ?" मैने सिर हिलाकर हामी भरी ।

"ठीक, तब आओ, जरा खुलकर बातें करें, सुनो, तुम जब तक जवान हो तब तक खुलकर बात करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए ।"
'अजीब आदमी है!' मैंने सोचा, लेकिन उसके शब्दों ने मुझे उलझा लिया था ।
"सो तो ठीक है," मैंने मुस्कराते हुए कहा, "लेकिन हम बातें किस चीज के बारे में करेंगे ?
पुराने परिचित की भांति उसने घनिष्ठता से मेरी आँखों में देखा और कहा, "साहित्य के उद्देश्यों के बारे में, क्यों, ठीक है न ?"
"हाँ मगर....देर काफी हो गया है...."
"ओह, तुम अभी नौजवान हो, तुम्हारे लिए अभी देर नहीं हुई ।"

मैं ठिठक गया, उसके शब्दों ने मुझे स्तब्ध कर दिया था । किसी और ही अर्थ में उसने इन शब्दों का उच्चारण किया था और इतनी गंभीरता से किया था कि वे भविष्य का उदघोष मालूम होते थे । मैं ठिठक गया था, लेकिन उसनें मेरी बांह पकड़ी और चुपचाप किंतु दृढ़ता के साथ आगे बढ़ चला ।

"रुको नहीं, मेरे साथ तुम सही रास्ते पर हो" उसने कहा, "बात शुरू करो, तुम मुझे यह बताओ कि साहित्य का उद्देश्य क्या है ?" मेरा अचरज बढ़ता जा रहा था और आत्मसंतुलन घटना जा रहा था । आखिर यह आदमी मुझसे चाहता क्या है? और यह है कौन ? निस्संदेह वह एक दिलचस्प आदमी था, लेकिन मैं उससे खीज उठा था । उससे पिंड छुडा़ने की एक और कोशिश करते हुए जरा तेजी से आगे की ओर लपका, लेकिन वह भी पीछे न रहा, साथ चलते हुए शांत भाव से बोला, "मैं तुम्हारी दिक्कत समझ सकता हूँ, एकाएक साहित्य के उद्देश्य की व्याख्या करना तुम्हारे लिए कठिन है, कही तो मैं कोशिश करूँ?"

उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा लेकिन मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कहने लगा, "शायद बात-बात से तुम सहमत होगे अगर मैं कहू कि साहित्य का उद्देश्य है-खुद अपने को जानने में इंसान की मदद करना, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और उसके सत्यान्वेषण को सहारा देना, लोगों की अच्छाईयों का उद्-घाटन करना और सौंदर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना, क्यों, इतना तो मानते हो ?"
"हाँ," मैंने कहा, "कमोबेश यह सही है, यह तो सभी मानते है कि साहित्य का उद्देश्य लोगों को और अच्छा बनाना है।"
"तब देखो न, लेखक के रुप में तुम कितने ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हो ! "मेरे साथी ने गंभीरता के साथ अपनी बात पर जोर देते हुए कहा और फिर अपनी वही तीखी हँसी हँसने लगा, "हो-हो-हो !"
यह मुझे बड़ा अपमानजनक लगा। मैं दुख और खीज से चीख उठा, "आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?"
"आओ, थोड़ी देर बाग में चलकर बैठते हैं।" उसने फिर एक हल्की हँसी हँसते हुए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।

उस समय हम नगर-बाग की एक वीथिका में थे । चारों ओर बबूल और लिलक की नंगी टहनियाँ दिखायी दे रही थीं, जिन पर वर्फ की परत चढ़ी हुई थी । वे चांद की रोशनी में चमचमाती मेरे सिर के ऊपर भी छाई हुई थीं औऱ ऐसा मालूम होता था जैसे वर्फ का कवच पहने ये सख्त टहनियाँ मेरे सीने को बेध कर सीधे मेरे हृदय तक पहुंच गयी हों।
मैंने बिना एक शब्द कहे अपने साथी की ओर देखा, उसके व्यवहार ने मूझे चक्कर में डाल दिया था। 'इसके दिमाग का कोई पूर्जा ढीला मालूम होता है।' मैंने सोचा औऱ इसके व्यवहार की इस व्याख्या से अपने मन को संतोष देने की कोशिश की।
"शायद तुम्हारा खवाल है कि मेरा दिमाग कुछ चल गया है" उसने जैसे मेरे भावों को ताड़ते हुए कहा। "लेकिन ऐसे खयाल को अपने दिमाग से निकाल दो यह तुम्हारे लिए नुकसानदेह और अशोभन है.... बजाय इसके कि हम उस आदमी को समझने की कोशिश करें, जो हमसे भिन्न है। इस बहाने की ओट लेकर हम उसे समझने के झंझट से छुट्टी पा जाना चाहते हैं । मनुष्य के प्रति मनुष्य की दुखद उदासीनता का यह एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण है।"
"ओह ठीक है," मैंने कहा । मेरी खीज बराबर बढ़ती ही जा रही थी, "लेकिन माफ करना, मैं अब चलूँगा, काफी समय हो गया।"
"जाओ अपने कंधों को बिचकाते हुए उसने कहा। "जाओ, लेकिन यह जान लो कि तुम खुद अपने से भाग रहे हो।" उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं वहाँ से चल दिया।
वह बाग में ही टीले पर रुक गया। वहा से वोल्गा नज़र आती थी जो अब बर्फ की चादर ताने थी और ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ की उस चादर पर सड़कों के काले फीते टंके हों, सामने दूर तट के निस्तब्ध और उदासी में डूबे विस्तृत मैदान फैले थे। वह वहीं पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गया और सूने मैदानों की ओर ताकता हुआ सीटी की आवाज़ में एक परिचित गीत की धुन गुनगुननाने लगा।
वो क्या दिखायेंगे राह हमको
जिन्हें खुद अपनी ख़बर नहीं
मैंने घुमकर उसकी ओर देखा अपनी कुहनी को घुटने पर और ठोडी की हथेली पर टिकाये, मुँह से सीटी बजाता, वह मेरी ही ओर नज़र जमाये हुए था और चांदनी से चमकते उसने चेहरे पर उसकी नन्हीं काली मूंछें फड़क रही थीं। यह समझकर कि यही विधि का विधान है, मैंने उसके पास लौटने का निश्चय कर लिया। तेज कदमों से मैं वहां पहुँचा और उसके बराबर में वैठ गया।
"देखो, अगर हमें बात करनी है तो सीध-सादे ढंग से करनी चाहिए," मैने आवेशपूर्वक लेकिन स्वयं को संयत रखते हुए कहा।
"लोगों को हमेशा ही सीधे-सादे ढंग से बात करनी चाहिए।" उसने सिर हिलाते हुए स्वीकार किया, "लेकिन यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा कि अपने उस ढंग से काम लिये बिना मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं कर सकता था। आजकल सीधी-सादी और साफ बातों को नीरस और रूखी कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन असल बात यह है कि हम खुद ठंडे और कठोर हो गये हैं और इसीलिए हम किसी भी चीज में जोश या कोमलता लाने में असमर्थ रहते हैं । हम तुच्छ कल्पनाओं और दिवास्तप्नों में रमना तथा अपने आपको कुछ विचित्र और अनोखा जताना चाहते हैं, क्योंकि जिस जीवन की हमने रचना की है, वह नीरस, बेरंग और उबाऊ है, जिस जीवन को हम कभी इतनी लगन और आवेश के साथ बदलने चले थे, उसने हमें कुचल और तोड़ डाला है "एक पल चुप रहकर उसने पूछा," क्यों, मैं ठीक कहता हूं न ?"
"हाँ," मैंने कहा, "तुम्हारा कहना ठीक है,"
"तुम बड़ी जल्दी घुटने टेक देते हो!" त़ीखी हँसी हँसते हुए मेरे प्रतिवादी न मेरा मखौल उडाया। मैं पस्त हो गया। उसने अपनी पैनी नज़र मुझ-पर जमा दी और मुस्कराता हुआ बोला, "तुम जो लिखते हो उसे हजारों लोग पढ़ते हैं। तुम किस चीज का प्रचार करते हो ? और क्या तुमने कभी अपने से यह पूछा है कि दूसरों को सीख देने का तुम्हें क्या अधिकार है ?"

जीवन में पहली बार मैंने अपनी आत्मा को टटोला, उसे जांचा-परखा। हाँ, तो मैं किस चीज का प्रचार करता हूँ ? लोगों से कहने के लिए मेरे पास क्या है ? क्या वे ही सब चीजें, जिन्हें हमेशा कहा-सुना जाता है, लेकिन जो आदमी को बदल कर बेहतर नहीं बनातीं ? और उन विचारों तथा नीतिवचनों का प्रचार करने का मुझे क्या हक है, जिनमें न तो मैं यकीन करता हूँ और न जिन्हें मैं लाता हूँ ? जब मैंने खुद उनके खिलाफ आचरण किया, तब क्या यह सिद्ध नहीं होता कि उनकी सच्चाई में मेरा विश्वास नहीं है ? इस आदमी को मैं क्या जवाब दूँ जो मेरी बगल में बैठा है ?
लेकिन उसने, मेरे जवाब की प्रतीक्षा से ऊब कर, फिर बोलना शुरू कर दिया, "एक समय था जब यह धरती लेखन-कला विशारदों, जीवन और मानव-हृदय के अध्येताओं और ऐसे लोगों से आबाद थी जो दुनिया को अच्छा बनाने की सर्वप्रबल आकांक्षा एवं मानव-प्रकृति में गहरे विश्वास से अनुप्राणित थे, उन्होंने ऐसी पुस्तकें लिखीं जो कभी विस्मृति के गर्भ में विलीन नहीं होंगी, कारण, वे अमर सच्चाइयों को अंकित करती हैं और उनके पन्नों से कभी मलिन न होने वाला सौंदर्य प्रस्फुटित होता है । उनमें चित्रित पात्र जीवन के सच्चे पात्र हैं, क्योंकि प्रेरणा ने उनमें जान फूंकी है, उन पुस्तकों में साहस है, दहकता हुआ गुस्सा और उन्मुक्त सच्चा प्रेम है, और उनमें एक भी शब्द भरती का नहीं है ।
"तुमने, मैं जानता हूं, ऐसी ही पुस्तकों से अपनी आत्मा के लिए पोषण ग्रहण किया है, फिर भी तुम्हारी आत्मा उसे पचा नहीं सकी, सत्य और प्रेम के बारे में तुम जो लिखते हो, वह झूठा और अनुभूतिशून्य प्रतीत होता है, लगता है, जैसे शब्द जबरदस्ती मुँह से निकाले जा रहे हों, चंद्रमा की तरह तुम दूसरे की रोशनी से चमकते हो, और यह रोशनी भी बुरी तरह मलिन है-वह परछाइयाँ खूब डालती है, लेकिन आलोक कम देती है और गरमी तो उसमें जरा भी नहीं हैं ।
"असल में तुम खुद गरीब हो, इतने कि दूसरों को ऐसी कोई चीज नहीं दे सकते जो वस्तुतः मूल्यवान हो, और जब देते भी हो तो सर्वोच्च संतोष की इस सजग अनुभूति के साथ नहीं कि तुमने सुंदर विचारों और शब्दों की निधि में वृद्धि करके जीवन को संपन्न बनाया है, तुम केवल इसलिए देते हो कि जीवन से और लोगों से अधिकाधिक ले सको, तुम इतने दरिद्र हो कि उपहार नही दे सकते, या तुम सूदखोर हो और अनुभव के टुकड़ों का लेनदेन करते हो, ताकि तुम ख्याति के रूप में सूद बटोर सको ।
"तुम्हारी लेखनी चीजों की सतह को ही खरोंचती है । जीवन की तुच्छ परिस्थितियों को ही तुम निरर्थक ढंग से कोंचते-कुरेदते रहते हो । तुम साधारण लोगों के साधारण भावों का वर्णन करते रहते हो, हो सकता है, इससे तुम उन्हें अनेक साधारण-महत्वहीन-सच्चाइयां सिखाते हो, लेकिन क्या तुम कोई ऐसी रचना भी कर सकते हो जो मनुष्य की आत्मा को ऊँचा उठाने की क्षमता रखती हो ? नहीं ! तो क्या तुम सचमुच इसे इतना मह्तवपूर्ण समझते हो कि हर जगह पड़े हुए कूड़े के ढेरों को कुरेदा जाये और यह सिद्ध किया जाये कि मनुष्य बुरा है, मूर्ख है, आत्मसम्मान की भावना से बेखबर है, परिस्थितियों का गुलाम है, पूर्णतया और हमेशा के लिए कमजोर, दयनीय और अकेला हैं ?
"अगर तुम पूछो तो मनुष्य के बारे में ऐसा घृणित प्रचार मानवता के शत्रु करते हैं-और दुख की बात यह है कि वे मनुष्य के हृदय में यह विश्वास जमाने में सफल भी हो चुके हैं, तुम ही देखो, मानव-मस्तिष्क आज कितना ठस हो गया है और उसकी आत्मा के तार कितने बेआवाज़ हो गये हैं, यह कोई अचरज की बात नहीं है, वह अपने आपको उसी रूप में देखता है जैसा कि वह पुस्तकों में दिखाया जाता है......
"और पुस्तकें-खास तौर से प्रतिभा का भ्रम पैदा करने वाली वाक्-चपलता से लिखी गयी पुस्तकें-पाठकों को हतबुद्धि करके एक हद तक उन्हें अपने वश में कर लेती हैं, अगर उनमें मनुष्य को कमजोर, दयनीय, अकेला दिखाया गया है तो पाठक उनमें अपने को देखते समय अपना भोंडापन तो देखता है, लेकिन उसे यह नज़र नहीं आता कि उसके सुधार की भी कोई संभावना हो सकती है । क्या तुममें इस संभावना को उभारकर रखने की क्षमता है ? लेकिन यह तुम कैसे कर सकते हो, जबकि तुम खुद ही.... जाने दो, मैं तुम्हारी भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाऊंगा, क्योंकि मेरी बात काटने या अपने को यही ठहराने की कोशिश किये बिना तुम मेरी बात सून रहे हो ।

"तुम अपने आपको मसीहा के रूप में देखते हो, समझते हो कि बुराइयों को खोल कर रखने के लिए खुद ईश्वर ने तुम्हें इस दुनिया में भेजा है, ताकि अच्छाइयों की विजय हो, लेकिन बुराइयों को अच्छाइयों से छांटते समय क्या तुमने यह नहीं देखा कि ये दोनों एक-दूसरो से गुंथी हुई हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता? मुझे तो इसमें भी भारी संदेह है कि खुदा ने तुम्हें अपना मसीहा बना कर भेजा है । अगर वह भेजता तो तुमसे ज्यादा मजबूत इंसानों को इस काम के लिए चुनता, उनके हृदयों में जीवन, सत्य और लोगों के प्रति गहरे प्रेम की जोत जगाता ताकि वे अंधकार में उसके गौरव और शक्ति का उद्घोष करने वाली मशालों की भांति आलोक फैलायें, तुम लोग तो शैतान की मोहर दागने वाली छड़ की तरह धुआं देते हो, और यह धुआँ लोगों को आत्मविश्वासहीनता के भावों से भर देता है । इसलिय तुमने और तुम्हारी जाति के अन्य लोगों ने जो कुछ भी लिखा है, उस सबका एक सचेत पाठक, मैं तुमसे पूछता हूँ-तुम क्यों लिखते हो? तुम्हारी कृतियाँ कुछ नहीं सिखातीं और पाठक सिवा तुम्हारे किसी चीज पर लज्जा अनुभव नहीं करता, उनकी हर चीज आम-साधारण है, आम-साधारण लोग, आम साधारण विचार, आम-साधारण घटनाएं ! आत्मा के विद्रोह और आत्मा के पुनर्जांगरण के बारे में तुम लोग कब बोलना शुरू करोगे ? तुम्हारे लेखन में रचनात्मक जीवन की वह ललकार कहाँ है, वीरत्व के दृष्टांत और प्रोत्साहन के वे शब्द कहाँ हैं, जिन्हें सुनकर आत्मा आकाश की ऊंचाइयों को छूती है ?
"शायद तुम कहो- 'जो कुछ हम पेश करते हैं, उसके सिवा जीवन में अन्य नमूने मिलते कहाँ है ?'
न, ऐसी बात मुँह से न निकालना, यह लज्जा और अपमान की बात है कि वह, जिसे भगवान ने लिखने की शक्ति प्रदान की है । जीवन के सम्मुख अपनी पंगुता और उससे ऊपर उठने में अपनी असमर्थता को स्वीकार करे, अगर तुम्हारा स्तर भी वही है, जो आम जीवन का, अगर तुम्हारी कल्पना ऐसे नमूनों की रचना नहीं कर सकती जो जीवन में मौजूद न रहते हुए भी उसे सुधारने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, तब तुम्हारा कृतित्व किस मर्ज की दवा है ? तब तुम्हारे धंधे की क्या सार्थकता रह जाती है?
"लोगों के दिमागों को उनके घटनाविहीन जीवन के फोटोग्राफिक चित्रों का गोदाम बनाते समय अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछो कि ऐसा करके क्या तुम नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो ? कारण-और तुम्हें अब यह तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए-कि तुम जीवन का ऐसा चित्र पेश करने का ढंग, नहीं जानते जो लज्जा की एक प्रतिशोधपूर्ण चेतना को जन्म दे, जीवन के नए जीवन के स्पंदन को तीव्र और उसमें स्फूर्ति का संचार करना चाहते हो, जैसा कि अन्य लोग कर चुके हैं?"

मेरा विचित्र साथी रुक गया और मैं, बिना कुछ बोले, उसके शब्दों पर सोचता रहा, थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, "एक बात और, क्या तुम ऐसी आह्लादपूर्ण हास्य-रचना कर सकते हो,जो आत्मा का सारा मैल धो डाले ? देखो न, लोग एकदम भूल गये हैं कि ठीक ढंग से कैसे हँसा जाता है ! वे कुत्सा से हँसते हैं, वे कमीनपन से हँसते हैं, वे अक्सर अपने आँसुओं की बेधकर हँसते हैं, वे हृदय के उस समूच उल्लास से कभी नहीं हँसते जिससे वयस्कों के पेट में बल पड़ जाते हैं, पसलियां बोलने लगती हैं, अच्छी हंसी एक स्वास्थ्यप्रद चीज है । यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग हमें, आखिर हँसने की क्षमता उन गिनी-चुनी चीजों में से एक है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती हैं, क्या तुम निदा की हँसी के अवाला अन्य किसी प्रकार की हँसी को भी जन्म दे सकते हो ? निंदा की हंसीँ तो बाजारू हँसी है, जो मानव जीवधारियों को केवल हँसी का पात्र बनाती है कि उसकी स्थिति दयनीय है ।
"तुम्हें अपने हृदय में मनुष्य की कमजोरियों के लिए महान घृणा का और मनुष्य के लिए महान प्रेम का पोषण करना चाहिए, तभी तुम लोगों को सीख देने के अधिकारी बन सकोगे, अगर तुम घृणा और प्रेम, दोनों में से किसी का अनुभव नहीं कर सकते, तो सिर नीचा रखो और कुछ कहने से पहले सौ बार सोचो"
सुबह की सफेदी अब फूट चली थी, लेकिन मेरे हृदय में अंधेरे गहरा रहा था, यह आदमी, जो मेरे अंतर के सभी भेदों से वाकिफ था, अब भी बोल रहा था ।
"सब कुछ के बावजूद जीवन पहले से अधिक प्रशस्त और अधिक गहरा होता जा रहा है, लेकिन यह बहुत धीमी गति से हो रहा है, क्योंकि तुम्हारे पास इस गति को तेज़ बनाने के लायक न तो शक्ति है, न ज्ञान, जीवन आगे बढ़ रहा है और लोग दिन पर दिन अधिक और अधिक जानना चाहते हैं । उनके सवालों के जवाब कौन दें ? यह तुम्हारा काम है लेकिन क्या तुम जीवन में इतने गहरे पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोल कर रख सको ? क्या तुम जानते हो कि समय की मांग क्या है ? क्या तुम्हें भविष्य की जानकारी है और क्या तुम अपने शब्दों से उस आदमी में नई जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्ट और निराश कर दिया है ?"

यह कहकर वह चुप हो गया । मैंने उसकी ओर नहीं देखा. याद नहीं कौन-सा भाव मेरे हृदय में छाया हुआ था-शर्म का अथवा डर का । मैं कुछ बोल भी नहीं सका ।
"तुम कुछ जवाब नहीं देते?" उसी ने फिर कहा, "खैर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूँ अच्छा, तो अब मैं चला."
"इतनी जल्दी ?" मैने धीमी आवाज़ में कहा. कारण, मैंउ ससे चाहे जितना भयभीत रहा होऊँ, लेकिन उससे भी अधिक मैं अपने आपसे डर रहा था.
"हाँ, मैं जा रहा हूँ. लेकिन मैं फिर आऊँगा. मेरी प्रतीक्षा करना ।"
और वह चला गया । लेकिन क्या वह सचमुच चला गया ? मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा । वह इतनी तेजी से और खामोशी से गायब हो गया जैसे छाया। मैं वहीं बाग में बैठा रहा- जाने कितनी देर तक-और न मुझे ठंड का पता था, न इस बात का कि सूरज उग आया है और पेड़ों की बर्फ से ढंकी टहनियों पर चमक रहा है.

समाज का शिकार / रवींद्रनाथ टैगोर



मैं जिस युग का वर्णन कर रहा हूं उसका न आदि है न अंत!

वह एक बादशाह का बेटा था और उसका महलों में लालन-पालन हुआ था, किन्तु उसे किसी के शासन में रहना स्वीकार न था। इसलिए उसने राजमहलों को तिलांजलि देकर जंगलों की राह ली। उस समय देशभर में सात शासक थे। वह सातों शासकों के शासन से बाहर निकल गया और ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां किसी का राज्य न था।

आखिर शाहजादे ने देश को क्यों छोड़ा?

इसका कारण स्पष्ट है कि कुएं का पानी अपनी गहराई पर सन्तुष्ट है। नदी का जल तटों की जंजीरों में जकड़ा हुआ है, किन्तु जो पानी पहाड़ की चोटी पर है उसे हमारे सिरों पर मंडराने वाले बादलों में बन्दी नहीं बनाया जा सकता।

शाहजादा भी ऊंचाई पर था और यह कल्पना भी न की जा सकती थी कि वह इतना विलासी जीवन छोड़कर जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में दृढ़ता से सामना करेगा। इस पर भी बहादुर शाहजादा भयावने जंगल को देखकर भयभीत न हुआ। उसकी राह में सात समुद्र थे और न जाने कितनी नदियां? किन्तु उसने सबको अपने साहस से पार कर लिया।

मनुष्य शिशु से युवा होता है और युवा से वृध्द होकर मर जाता है, और फिर शिशु बनकर संसार में आता है। वह इस कहानी को अपने माता-पिता से अनेक बार सुनता है कि भयानक समुद्र के किनारे एक किला है। उसमें एक शहजादी बन्दी है, जिसे मुक्त कराने के लिए एक शाहजादा जाता है।

कहानी सुनने के पश्चात् वह चिंतन की मुद्रा में कपोलों पर हाथ रखकर सोचता कि कहीं मैं ही तो वह शाहजादा नहीं हूं।

जिन्नों के द्वीप की दशा सुनकर उसके हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि मुझे एक दिन शहजादी को बन्दीगृह से मुक्ति दिलाने के लिए उस द्वीप को प्रस्थान करना पड़ेगा। संसार वाले मान-सम्मान चाहते हैं, धन-ऐश्वर्य के इच्छुक रहते हैं, प्रसिध्दि के लिए मरते हैं, भोग-विलास की खोज में लगे रहते हैं, किन्तु स्वाभिमानी शाहजादा सुख-चैन का जीवन छोड़कर अभागी शहजादी को जिन्नों के भयानक बन्दीगृह से मुक्ति दिलाने के लिए भयानक द्वीप का पर्यटन करता है।

2

भयानक तूफानी सागर के सम्मुख शाहजादे ने अपने थके हुए घोड़े को रोका; किन्तु पृथ्वी पर उतरना था कि सहसा दृश्य बदल गया और शाहजादे ने आश्चर्यचकित दृष्टि से देखा कि समाने एक बहुत बड़ा नगर बसा हुआ है। ट्राम चल रही है, मोटरें दौड़ रही हैं, दुकानों के सामने खरीददारों की और दफ्तरों के सामने क्लर्कों की भीड़ है। फैशन के मतवाले चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित चहुंओर घूम-फिर रहे हैं। शाहजादे की यह दशा कि पुराने कुर्ते में बटन भी लगे हुए नहीं। वस्त्र मैले, जूता फट गया, हरेक व्यक्ति उसे घृणा की दृष्टि से देखता है किन्तु उसे चिन्ता नहीं। उसके सामने एक ही उद्देश्य है और वह अपनी धुन में मग्न है।

अब वह नहीं जानता कि शहजादी कहां है?

वह एक अभागे पिता की अभागी बेटी है। धर्म के ठेकेदारों ने उसे समाज की मोटी जंजीरों में जकड़कर छोटी अंधेरी कोठरी के द्वीप में बन्दी बना दिया है। चहुंओर पुराने रीति-रिवाज और रूढ़ियों के समुद्र घेरा डाले हुए हैं।

क्योंकि उसका पिता निर्धन था और वह अपने होने वाले दामाद को लड़की के साथ अमूल्य धन-संपत्ति न दे सकता था। इसलिए किसी सज्जन खानदान का कोई शिक्षित युवक उसके साथ विवाह करने पर सहमत न होता था।

लड़की की आयु अधिक हो गई। वह रात-दिन देवताओं की पूजा-अर्चना में लीन रहती थी। उसके पिता का स्वर्गवास हो गया और वह अपने चाचा के पास चली गई।

चाचा के पास नकद रुपया भी था और काफी मकान आदि भी। अब उसे सेवा के लिए मुफ्त की सेविका मिल गई। वह सवेरे से रात के बारह बजे तक घर के काम-काज में लगी रहती।

बिगड़ी दशा का शाहजादा उस लड़की के पड़ोस में रहने लगा। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। प्रेम की जंजीरों ने उनके हृदयों से विवाह कर दिया। लड़की जो अब तक पैरों से कुचली हुई कोमल कली की भांति थी उसने प्रथम बार संतोष और शांति की सांस लिया।

किन्तु धर्म के ठेकेदार यह किस प्रकार सहन कर सकते थे कि कोई दुखित स्त्री लोहे की जंजीरों से छुटकारा पाकर सुख का जीवन व्यतीत कर सके।

उसका विवाह क्या हुआ एक प्रलय उपस्थित हो गई। प्रत्येक दिशा में शोर मचा कि 'धर्म संकट में है, 'धर्म संकट में है।'

चाचा ने मूछों पर ताव देकर कहा- ''चाहे मेरी सम्पूर्ण संपत्ति नष्ट ही क्यों न हो जाये, अपने कुल के रीति-रिवाजों की रक्षा करूंगा।''

बिरादरी वाले कहने लगे- ''एक समाज की सुरक्षा हेतु लाखों रुपया बलिदान कर देंगे'', और एक धर्म के पुजारी सेठ ने कहा-''भाई कलयुग है, कलियुग। यदि हम अचेत रहे तो धर्म विलय हो जायेगा। आप सब महानुभाव रुपये-पैसे की चिन्ता न करें, यदि यह मेरा महान कोष धर्म के काम न आया, तो फिर किस काम आयेगा? तुम तुरन्त इस पापी चांडाल के विरुध्द अभियोग आरम्भ करो।''

अभियोगी न्यायालय में उपस्थित हुआ। अभियोगी की ओर से बड़े-बड़े वकील अपने गाऊन फड़काते हुए न्यायालय पहुँचे। अभागी लड़की के विवाह के लिए तो कोई एक पैसा भी खर्च करना न चाहता था, किन्तु उसे और उसके पति को जेल भिजवाने के लिए रुपयों की थैलियां खुल गईं।

नौजवान अपराधी ने चकित नेत्रों से देखा।

विधान की किताबों को चाटने वाली दीमकें दिन को रात और रात को दिन कर रही थीं।

धर्म के ठेकेदारों ने देवी-देवताओं की मन्नत मानी। किसी के नाम पर बकरे बलिदान किये गये, किसी के नाम पर सोने का तख्त चढ़ाया गया। अभियोग की क्रिया तीव्र गति से आरम्भ हुई। बिगड़ी हुई दशा वाले शाहजादे की ओर से न कोई रुपया व्यय करने वाला था न कोई पक्ष-समर्थन करने वाला।




न्यायाधीश ने उसे कठिन कारावास का दण्ड दिया।

मन्दिरों में प्रसन्नता के घंटे-घड़ियाल बजाये गये, सम्पूर्ण शक्ति से शंख बजाये गये, देवी और देवताओं के नाम बलि दी गई, पुजारियों और महन्तों की बन आई। सब आदमी खुशी से परस्पर धन्यवाद और साधुवाद देकर कहने लगे-

''भाइयो! यह समय कलियुग का है परन्तु ईश्वर की कृपा से धर्म अभी जीवित है।''

3

शाहजादा अपनी सजा काटकर कारावास से वापिस आ गया किन्तु उसका लम्बा-चौड़ा पर्यटन अभी समाप्त न हुआ था। वह संसार में अकेला था, कोई भी उसका संगी-साथी नहीं। संसार वाले उसे दंडी (सजायाफ्ता) कहकर उसकी छाया से भी बचते हैं।

सत्य है इस संसार में राज-नियम भी ईश्वर है।

फिर ईश्वर के अपराधी से सीधे मुंह बात करना किसे सहन हो सकता है?

लम्बी-चौड़ी मुसाफिरी तो उसकी समाप्त न हुई; किन्तु उसके चलने का अन्त हो गया। उसके जख्मी पांवों में चलने की शक्ति शेष न रही।

वह थककर गिर पड़ा, रोगी था...बहुत अधिक रोगी। उस असहाय पथिक की सेवा-सुश्रूषा कौन करता?

किन्तु उसकी अवस्था पर एक सुहृदय देवता का हृदय दुखा। उसका नाम 'काल' था। उसने शाहजादे की सेवा-सुश्रूषा की। उसने सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और उसके साथ शाहजादा उस संसार में पहुंच गया जहां न समाज है और न उसके अन्याय और न अन्यायी।

बच्चा आश्चर्य से अपनी मां की गोद में यह कहानी सुनता है और अपने फूल-से कोमल कपोलों पर हाथ रखकर सोचता है, कहीं वह शाहजादा मैं ही तो नहीं हूं।

विदा / रवींद्रनाथ टैगोर



कन्या के पिता के लिए धैर्य धरना थोड़ा-बहुत संभव भी था; परन्तु वर के पिता पल भर के लिए भी सब्र करने को तैयार न थे। उन्होंने समझ लिया था कि कन्या के विवाह की आयु पार हो चुकी है; परन्तु किसी प्रकार कुछ दिन और भी पार हो गये तो इस चर्चा को भद्र या अभद्र किसी भी उपाय से दबा रखने की क्षमता भी समाप्त हो जायेगी? कन्या की आयु अवैध गति से बढ़ रही थी, इसमें किसी को शंका करने की आवश्यकता बड़ी नहीं; किन्तु इससे भी बड़ी शंका इस बात की थी कि कन्या की तुलना में दहेज की रकम अब भी काफी अधिक थी। वर के पिता इसी हेतु इस प्रकार से जल्दी मचा रहे थे।

मैं ठहरा वर अपितु विवाह के विषय में मेरी राय से अवगत होना नितान्त व्यर्थ समझा गया। अपनी कर्त्तव्यपरायणता में मैंने भी किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आने दी, यानी एफ.ए. पास करके छात्रवृति का अधिकारी बन बैठा। परिणाम यह निकला कि मेरे सम्बन्ध में श्री प्रजापति के दोनों ही पक्ष, कन्या पक्ष और वर पक्ष बार-बार बेचैन होने लगे।

हमारी जन्म-भूमि में जो पुरुष एक बार विवाह कर लेता है, उसके मन में दूसरी बार विवाह करके रचनात्मक कार्यों में कोई जिज्ञासा या उद्वेग नहीं होता एक बार नर-मांस का स्वाद लेने पर उसके प्रति बाघ की जो मन की दशा होती है, नारी के विषय में बहुत कुछ वैसी ही हालत एक बार विवाह कर लेने वाले पुरुष के मन की भी होती है।

एक बार नारी का अभाव घटित हुआ, कि फिर सबसे पहला प्रयत्न उस अभाव को पूर्ण करने के लिए किया जाता है। ऐसा करते हुए इस बार उसका मन दुविधा में नहीं रहता, कि भावी पत्नी की आयु क्या है और कैसी है उसकी अवस्था?

मैं देखता हूं कि सारी दुविधा और दुश्चिंता का ठेका आजकल के लड़कों के ही नाम छूटा है। लड़कों की ओर से बारम्बार विवाह का प्रस्ताव होने पर उनके पिता पक्ष के चांदी के समान श्वेत केश खिजाब की महिमा से बारम्बार श्याम-वर्ण को अपना लेते हैं और उधर बातचीत की तप्ताग्नि से ही लड़कों के श्याम केश, मारे चिन्ता, परेशानी के रात के कुछ घंटों में ही उठने का उपक्रम करते हैं।

आप विश्वास कीजिए, मेरे मन में ऐसा कोई विषय या उद्वेग का श्रीगणेश नहीं हुआ; अपितु विवाह के प्रस्ताव से मन मयूर बसन्त की दक्षिण पवन की शीतलता में नृत्य कर उठा। कौतूहल से उलझी हुई कल्पना की नई आई हुई कोंपलों के बीच मानो गुपचुप कानाफूसी होने लगी। जिस विद्यार्थी को एडमण्ड वर्क की फ्रांसीसी क्रान्ति की घोर टीकाओं के पांच-सात पोथे जबानी घोटने हों, उसके मन में इस जाति के भावों का उठना निरर्थक ही समझा जाएगा। यदि टेक्सट बुक कमेटी के द्वारा मेरे इस लेख के पास होने की लेशमात्र भी शंका होती, तो सम्भवत: ऐसा कहने से पूर्व ही सचेत हो जाता।

परन्तु मैं यह क्या ले बैठा? क्या यह भी ऐसी कोई घटना है? जिसे लेकर उपन्यास लिखने की योजना बना रहा हूं। मेरी योजना इतनी शीघ्र आरम्भ हो जाएगी, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। प्रबल आकांक्षा थी कि वेदना के जो कजरारे मेघ गत कई वर्षों से मन में छा रहे हैं उन्हें किसी बैशाखी संध्या की तूफानी वर्षा के वेग द्वारा बिल्कुल ही निष्प्राण कर दूंगा। पर न तो बच्चों की पाठ्य-पुस्तक ही लिखी गई, क्योंकि संस्कृत का व्याकरण मेरे मस्तिष्क से अछूता रह गया था और न काव्य ही रचा जा सका; क्योंकि मातृभाषा मेरे जीवन युग में ऐसी फली-फूली नहीं थी जिसके द्वारा मैं अपने हृदय के राज को बाहर प्रकट कर पाता। अत: देख रहा हूं कि मेरे अन्तर का संन्यासी आज अपने अट्टहास से अपना ही परिहास करने के लिए बैठा है। इसके अतिरिक्त वह करे भी तो क्या? उसके अश्रु शुष्क जो हो गये हैं। जेठ की कड़कड़ाती धूप वस्तुत: जेठ का अश्रु शून्य क्रन्दन ही तो है।

जिसके साथ विवाह हुआ था, उसका वास्तविक नाम नहीं बताऊंगा, क्योंकि आज ब्रह्मांड के पुरातत्व-वेत्ताओं में उसके ऐतिहासिक नाम के विषय में विशेष विवाद होने की शंका नहीं है। जिस ताम्र-पत्र पर उसका नाम अंकित है, वह मेरा ही हृदय है। वह पट और पत्नी का नाम किसी युग में भी विलुप्त होगा, यह सोचना मेरी कल्पना से बाहर है। परन्तु जिस सुनहरी दुनिया में वह अक्षय बना रहा, वहां इतिहास के विद्वानों का आना-जाना नहीं होता है। इस पर भी मेरे इस लेख में उसका कुछ-न-कुछ नाम तो चाहिए ही, अच्छा तो समझ लीजिए शबनम उसका नाम था, क्योंकि शबनम में मुस्कान और रुदन दोनों घुल-मिलकर एकाकार हो जाती है और भोर का संदेश प्रभाव बेला तक आते ही चुक जाता है।

शबनम मुझसे केवल दो ही वर्ष छोटी थी। मेरे पिता गौरी दान से विमुख हों, सो यह बात नहीं थी। उनके पिताजी कट्टर समाज-विद्राही थे? देश में प्रचलित किसी भी धर्म के प्रति उनमें श्रध्दा न थी। उन्होंने खूब कसकर बांग्ला भाषा का अध्ययन किया था। मेरे पिता उग्र भाव से समाज के अनुयायी थे। जिसे अंगीकार करते हुए किंचित-मात्र भी अड़चन हो, ऐसी किसी भी वस्तु की हमारे समाज की विशाल डयोढ़ी या अन्त:पुर में या पिछली राह पर झलक देख पाना सम्भव न था। इसका भी कारण यही कि उन्होंने भी कसकर बांग्ला भाषा का अध्ययन किया था। पितामह और पिताजी के विभिन्न रूप क्रान्ति की दो विभिन्न मूर्तियां थीं। कोई भी सरल स्वभाव का नहीं। फिर भी बड़ी आयु वाली कन्या के साथ मेरा विवाह करना पिता ने इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसकी इस बड़ी-सी आयु की दोनों मुट्ठियों में दहेज की रकम भी बहुत बड़ी थी। शबनम मेरे श्वसुर की एकमात्र कन्या थी। पिताजी को पूर्ण विश्वास था कि कन्या के पिता का सारा धन भावी दामाद भविष्य के उदर की परिपूर्ण करने वाली है। मेरे श्वसुर को किसी मत-मतान्तर का झमेला नहीं था? पश्चिम की किसी पहाड़ी रियासत के नरेश के यहां किसी उच्च पद पर थे? शबनम जब गोद में ही थी, तभी उसकी मां के प्यार का आंचल उस पर से उठ गया था। इस बात की ओर उसके पिता का ध्यान भी नहीं गया कि पुत्री प्रति वर्ष एक-एक वर्ष करके बड़ी होती जा रही है। वहां उनके समाज का कोई ऐसा ठेकेदार नहीं था, जो उनके नेत्रों में अंगुली डालकर इस सच्चाई को उनके हृदय में बिठा देता।

शबनम ने यथा समय उम्र के 16 वर्ष पार किए; किन्तु वे स्वाभाविक 16 वर्ष के थे, सामाजिक नहीं। किसी ने उसे यौवन के प्रति सचेत होने का परामर्श नहीं दिया और न ही उसने स्वयं उस ओर देखा? मैंने उन्नीसवें वर्ष में कॉलिज के तृतीय वर्ष में पग रखा। ठीक तभी मेरा विवाह हो गया। समाज या समाज के ठेकेदार के मत से वह आयु विवाह के उपयुक्त है या नहीं, इस विषय में दोनों पक्ष लड़-भिड़कर चाहे खून खराबा कर बैठे; किन्तु मैं तो निवेदन के साथ यही कहना चाहता हूं कि परीक्षा पास करने के हेतु यह आयु जिस प्रकार ठीक है, विवाह करने के लिए भी उससे किसी प्रकार कम नहीं। विवाह का सूत्रपात एक चित्र के द्वारा हुआ था। उस दिन मैं पढ़ाई-लिखाई में सिर गढ़ाये बैठा था कि मेरे साथ परिहास का सम्बन्ध रखने वाली किसी आत्मीया ने मेरे सम्मुख टेबुल पर शबनम का चित्र लाकर रख दिया और कुछ पल शान्ति के साथ बिताकर कहा, ''लो, अब झूठ-मूठ की पढ़ाई को बन्द करके सचमुच की पढ़ाई करो। एकदम जी तोड़कर परिश्रम में लगाने वाली पढ़ाई।'' चित्र किसी अनाड़ी चित्रकार द्वारा खींचा गया था। कन्या के मां नहीं थी, अत: उस दीर्घ श्याम केशों को बांध-संवार कर जूड़े में जरी गूंथकर कलकत्ते की प्रसिध्द शाह या मालिक कम्पनी की भद्दी, तंग जैकेट पहनाकर दूसरे पक्ष के नेत्रों में धूल झोंकने का बरबस प्रयत्न नहीं किया गया था। केवल एक सरल भरा हुआ चेहरा था, मृगी-सी दो आंखें ओर सीधी-सादी एक साड़ी। तब भी पता नहीं क्यों कोई अपूर्व महिमा, सौन्दर्य उसे घेरे हुए था। किसी भी एक चौकोर चौकी पर वह बैठी हुई थी। पीछे आवरण के स्थान पर एक धारीदार शतरंजी झूल रही थी। पास में तनिक-सी ऊंची तिपाई पर ही फूलदानी में फूलों के सुन्दर गुलदस्ते दीख रहे थे। ईरानी कालीन पर साड़ी की तिरछी किनार के किंचित अनाबध्द दो कोमल खाली पैर। चित्र की उस रूप-सुधा को जैसे ही मेरे मन के जादू का स्पर्श मिला कि वह मेरे अन्तरतम में जाग उठी। वे दोनों कजरारी आंखें मेरे सारे चिन्तन को चीरकर मुझ पर जाने कैसे अनोखे भाव से आकर स्थिर हो गईं और उस तिरछी किनार के निम्न भाग के दोनों अनावृत्त पगों ने मेरे अन्तर परयांसन पर बरबस अपना घर बना लिया।

पत्रे की तिथियां आई-गई हो गईं। विवाह के दो-तीन लग्न भी बीत गये; किन्तु मेरे श्वसुर को छुट्टी मिलने का नाम भी नहीं। इधर कुछ मास से मेरे देखते-देखते एक अकाल मेरी इतनी बड़ी अविवाहित उम्र को फिजूल ही उन्नीसवें वर्ष की ओर धकेलने का प्रयास कर रहा था। श्वसुर और उनके अधिकारियों पर मुझे खीझ होने लगी।

विवाह का दिन ठीक अकाल की पूर्व लग्न पर ही आकर पड़ा। उस दिन की शहनाई की हर तान आज मुझे स्मरण हो रही है। उस दिन के प्रति मुहूर्त को मैंने चेतनता के साथ स्पर्श किया था। मेरी यह उन्नीस वर्ष की आयु मेरे जीवन में सदैव रहे, मैं उसे कदापि नहीं भुला सकूंगा।

विवाह-मंडप में चहुंओर कोलाहाल-सा फैला हुआ था। उसी के बीच कन्या का कोमल हाथ मैंने अपने हाथों में पाया। मुझे स्पष्ट तरीके से याद है कि यही मेरे जीवन की एक परम आश्चर्यजनक घटना है। मेरे मन ने बारम्बार यही कहा- ''इसे मैंने पाया है, हासिल किया है; किन्तु किसे? यह तो दुर्लभ है। यह नारी है, इसके रहस्य का क्या कभी ओर-छोर पाया जा सकता है?''

मेरे श्वसुर का नाम गौरीशंकर था। जिस हिमाचल पर वे उच्च पदाधिकारी थे, उसी हिमाचल के मानो मोती थे। उनके गम्भीरता के शिखर पर क्षेत्र में कोई प्रशान्त स्वच्छ हंसी उज्ज्वल होकर छाई हुई थी। उनके हृदय के स्नेह-स्रोत का संधान जिसने भी एक बार लिया, उसने फिर कभी उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करने की चेष्टा नहीं की।

काम पर लौटने से पूर्व उन्होंने मुझे बुलाकर कहा- ''बेटा, अपनी बच्ची को 17 वर्ष से जानता हूं और तुम्हें अभी कुछ दिनों से, इस पर भी सौंपा तुम्हारे ही हाथों में है। जो निधि आज तुम्हें मिली है, किसी दिन उसका मूल्य भी परख सको, इससे बढ़कर आशीर्वाद मेरे पास नहीं।''

मेरे माता-पिता ने उन्हें बारम्बार आशा भरे शब्दों में कहा- ''समधीजी! कुछ चिन्ता न करना। तुम्हारी पुत्री जैसे पिता को छोड़कर आई है। वैसे ही यहां माता-पिता दोनों पाये ऐसा ही समझिये।''

शबनम से विदा होते समय वे हंसकर बोले- ''बिटिया चल दिया। इस बूढ़े पिता को छोड़ तेरा कौन अपना रहा है? आज से यदि इसका कुछ भी गुम हो जाये, तो इसके लिए मुझे जिम्मेवार न ठहराना।'' शबनम ने उत्तर दिया- ''क्यों नहीं, यदि कभी इतनी-सी चीज भी गुम हो गई तो आपको सारी हानि भरनी पड़ेगी।''

अन्त में घर रहते हुए जिन विषयों पर बहुधा ही झंझट खड़े हो जाते थे, उनसे उसने पिता को बार-बार सचेत कर दिया। भोजन के विषय में अनियम का उन्हें खासा अभ्यास था। कुछ विशेष प्रकार के अपथ्य भोजन पर उनकी विशेष रुचि थी। पिता को उन सारे प्रलोभनों से यथासम्भव दूर रखना बेटी का विशेष कर्त्तव्य था। इसी से वह पिता का हाथ पकड़कर बोली- ''बाबूजी! क्या मेरी एक बात रखेंगे?'' पिता ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''मानव इसलिए वचन देता है, कि एक दिन उसे भंग कर चैन की सांस ले सके। इससे वचन न देना ही श्रेयस्कर है।''

फिर वह कुछ न बोली और पिता के चले जाने पर उसने कमरे के द्वार बन्द कर लिये इसके बाद की घटना का बखान अन्तर्यामी ही कर सकते हैं। पिता-पुत्री की अश्रुहीन विदाई का दृश्य पार्श्व के कक्ष की चिर-कौतूहली अंत:पुरिकाओं ने देखा, सुना और आलोचना की- ''कैसी अजीब बात है भला? रूखी-सूखी जमीन पर रहते-रहते इन लोगों का हृदय भी सूखकर कांटा हो गया है। माया-ममता का चिन्ह लेशमात्र भी नहीं रहा। राम! राम! राम!''

मेरे श्वसुर के मित्र बनमाली बाबू ने ही हमारी बातचीत पक्की की थी। वे हम लोगों के परिवार से भलीभांती परिचित थे। वे मेरे श्वसुर से बोले- ''बेटी को छोड़कर तो तुम्हारा दुनिया में कोई नहीं है। यहीं इनके पास ही कोई मकान लेकर जिन्दगी के शेष दिन काट डालो।''

उत्तर मिला- ''जब दान दिया है, तो नि:शेष करके ही दे डाला है। फिर लौट-लौटकर निहारने से उसकी पीड़ा बढ़ेगी। जिस अधिकार को एक बार त्याग चुका, उसे बार-बार बनाये रखने के प्रयत्न से बढ़कर विडम्बना और क्या होगी?''

अन्त में मुझे एकान्त में ले जाकर किसी अपराधी की तरह सकुचाते हुए बोले- ''बिटिया को पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव है और लोगों को खिलाना-पिलाना उसे बहुत अच्छा लगता है। यदि बीच-बीच में तुम्हें रुपये-पैसे भेज दिया करूं, इससे वे नाराज तो नहीं होंगे?''

सुनकर मुझे तनिक आश्चर्य हुआ। कारण जीवन में कभी किसी भी ओर से धनराशि मिलने पर पिताजी नाराज हुए हों, उनका ऐसा बिगड़ा मिजाज तो मैंने कभी नहीं देखा? जो हो, मेरे श्वसुर मानो मुझे घूस दे रहे हों कुछ ऐसे ही भाव से मेरे हाथों में सौ रुपये का एक नोट थमा कर, वे वहां से चटपट चल दिए। मैंने देखा, इस बार जेब से रूमाल निकलाने की बारी आ ही गई। स्तब्ध होकर मैं विचारों में खो गया। मैंने अनुभव किया कि ये लोग बिल्कुल ही अन्य जाति के मानव हैं।

अपने सहपाठियों में कितनों ही को तो विवाह करते हुए देखा है। विवाह मंत्रों के उच्चारण के साथ-ही-साथ स्त्री को एकबारगी कंठ के निम्न भागों में उतार लेते हैं। हजम करने के यंत्र तक पहुंचने पर थोड़ी देर के बाद वह पदार्थ अपने गुणों एवं अवगुणों का हल कर सकता है और इसके फलस्वरूप हृदय के भीतर चिन्ता बनकर हचचल भी आरम्भ हो सकती है। सो होती रहे; परन्तु निगलने के रास्ते में इससे कोई रुकावट नहीं पड़ती।

किन्तु मैंने विवाह-मंडप में ही समझ लिया था कि पाणिग्रहण के मंत्र द्वारा जिसे प्राप्त किया जाता है, उससे घर-गृहस्थी तो भली-भांति चल जाती है; परन्तु उसके हृदय को पूर्णरूपेण पाना पन्द्रह आना बाकी रह जाता है। मुझे सन्देह है कि विश्व के अधिकांश पुरुष पत्नी को ठीक-ठाक पाते हैं या उनको समझते हैं। वे स्त्री को ब्याह कर ले आते हैं, किन्तु उपलब्ध नहीं कर पाते और न कभी उन्हें इस बात का एहसास हो पाता है कि उन्होंने पाया कुछ भी नहीं। उनकी पत्नियां भी मृत्यु काल तक इस कटु सत्य से अवगत नहीं हो पातीं। लेकिन मैंने ऐसा अनुभव किया कि वह मेरी साधना की निधि है। वह अचल संपत्ति नहीं, सम्पदा है, अगाध रत्नराशि है।

शबनम, नहीं इस नाम से काम नहीं चलेगा। एक तो यह कि वह उसका वास्तविक नाम नहीं और न यह उसका यथार्थ परिचय है। वह तो दिवाकर की तप्त रश्मि है, क्षयकालीन उषा की विदा बेला के अश्रुओं का बिन्दु नहीं। नाम को गोपनीय रखकर ही आखिर क्या होगा? उसका वास्तविक नाम था...हेमन्ती।

मैंने देखा, सत्रह वर्ष की इस सुन्दरी पर यौवन का पूरा आलोक बिखरा हुआ है। तब भी इस अवस्था की गोद में भी उसे चेतनता नहीं मिली है। हिमाच्छादित शिखर पर भोर का उजाला तो झलक उठा है; किन्तु हिम अभी तक गल नहीं पाया है। कैसी निष्कलंक शुभ्र है वह, कैसी पवित्र की प्रतिमा, यह मैं ही जानता हूं, मेरे मन में बराबर यह शंका बनी रहती थी इतनी पढ़ी शिक्षित लड़की का मन पता नहीं, क्योंकर पा सकूंगा? किन्तु कुछ ही दिवसों के उपरान्त मैंने जान लिया कि उसके मन की राह और शिक्षा की राह आपस में कहीं कटी ही नहीं है। कब उसके सरल-शुभ्र मन पर हल्की-सी रंगीनी छा गई नेत्र अलस तन्द्रा में झूम उठे और देहमन मानो उत्सुक हो उठे, सो निश्चिन्तता के साथ कह देना मेरे लिए कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव है?

यह तो हुई एक पक्ष की बात; लेकिन अब दूसरा पक्ष भी है। वह और उसके विषय में पूर्णरूप से कहने का समय अब आ पहुंचा है?

मेरे श्वसुर राज दरबार में उच्च पदाधिकारी थे। इसलिए उनकी कितनी धनराशि बैंक के खातों में है, इस सम्बन्ध में जनश्रुति ने बहुत तरह के अनुमान बिठाये थे। इनमें से किसी भी अनुमान की संख्या लाख के आंकड़ों से नीचे नहीं पड़ती थी। फलस्वरूप एक ओर पिता के प्रति सम्मान बढ़ता गया, तो दूसरी ओर इकलौती बेटी की ओर स्नेह। हमारी घर-गृहस्थी का काम-धंधा और तौर-तरीका जानने के लिए हेम खूब उत्सुकता दिखला रही थी। किन्तु मां ने उसे अगाध स्नेह दिखाने के अभिप्राय: से किसी काम में हाथ नहीं लगाने दिया? यहां तक कि मायके से हेम के साथ जो पहाड़िन मेहरी आई थी, उसे उन्होंने वास्तव में अपने कक्ष में नहीं घुसने दिया, फिर भी उसकी जाति-पांति के बारे में किसी प्रकार का अपवाद नहीं किया? वे डरती थीं कि विशेष छान-बीन करने पर कहीं कोई अरुचिकर सत्य न सुनना पड़े।

दिन इसी तरह कट जाते; लेकिन एक दिन पिताजी का मुंह घोर गंभीर दिखाई दिया। बात यह थी कि मेरे श्वसुर ने मेरे विवाह में 15 सहस्र रुपये नकद और पांच सहस्र के आभूषण दिए थे। इधर पिताजी को किसी कृपापात्र दलाल से पता चला कि यह धनराशि कर्ज लेकर जुटायी गई थी; जिसका ब्याज भी कुछ मामूली न था और लाख रुपये की अफवाह तो बिल्कुल उड़ाई हुई थी।

वास्तव में मेरे विवाह के पूर्व श्वसुर की संपत्ति के परिणाम के विषय में पिताजी ने भी उनकी कोई आलोचना नहीं की थी। तब भी न जाने किसी तर्क-पध्दति से आज उन्होंने यह बिल्कुल पक्का निश्चय कर लिया था कि उनके समधी ने जान-बूझकर यह धोखा उनके साथ किया है। इसके अलावा पिताजी की यह धरणा थी कि मेरे श्वसुर राजा के मुख्यमंत्री या उसी समान किसी उच्च पद के अधिकारी हैं। पीछे पता चला कि वे वहां के शिक्षा विभाग के अध्यउक्ष हैं। पिताजी ने टीका की- अर्थात् विद्यालय के मुख्याध्यासपक, विश्व में जितने भी भद्र पद हैं, उनमें सबसे ऊंचा है। पिताजी ने बड़ी-बड़ी आशाएं कर रखी थीं कि आज नहीं तो कल, श्वसुर के अवकाश प्राप्त करने पर राज मंत्री के पद पर वे स्वयं ही प्रतिष्ठित होंगे।

इन्हीं दिनों के कार्तिक मास में रामलीला के उपलक्ष्य में हमारा जन्मभूमि का सारा परिवार कलकत्ते वाली हवेली में आ जुटा है। वधू को देखते ही उनमें एक छोर से दूसरे छोर तक कानाफूसी की लहर दौड़ गई। क्रमश: अस्फुट हुई। दूर के नाते से सम्बन्धित नानी ने कहा- ''आग लगे मेरे भाग्य को, नई बहू ने तो उम्र में मुझे भी हरा दिया।''

सुनकर नानी की समवयस्का बोल उठी-''अरै हमें न हरायेगी, तो हमारा बच्चा विदेश से बहू लाने ही क्यों जाएगा?''

मां ने उग्रता के साथ उत्तर दिया- ''भैया रे! यह क्या बात हो रही है? बहू ने अभी ग्यारह पार नहीं किए, यही अगले फाल्गुन में बारह में पांव धरेगी। पछहुआ देस में दाल-भात खा-खाकर बड़ी हुई है बेचारी, सो देह तनिक अधिक सम्भल गई है।''

वृध्दाओं ने शान्त अविश्वास के साथ उत्तर दिया- ''सो बिटिया रानी, इतनी कमजोर तो हमारी निगाह अभी नहीं हुई है। हमारे ख्याल में तो लड़की वालों ने जरूर उमर कुछ दबाकर बताई है।''

मां ने कहा- ''हम लोगों ने तो जन्म-पत्री देखी है।''

''बात सच है, किन्तु जन्म-पत्री से ही तो प्रमाणित होता है कि बहू की उम्र सत्रह है।''

वृध्दाओं ने कहा- ''सो जन्म-पत्री में क्या धोखा-धड़ी नहीं चलती?'' इस बात पर घोर वाद-विवाद छिड़ गया। यहां तक कि संघर्ष की नौबत आ गई। उसी क्षण वहां हेम आ पहुंची। उन दोनों वृध्दाओं में से एक ने उसी से पूछा- ''बहू रानी! तुम्हारी उमर क्या है, बताओ तो भला?'' मां ने आंखों से संकेत किया; परन्तु हेम उनका मतलब नहीं समझी, बोली- ''सत्रह।'' मां तिलमिला उठी। उसने उसी अवस्था में कहा- ''तुम्हें मालूम नहीं है। ''हेम विरोध का प्रदर्शन करती हुई बोली- ''मुझे ठीक मालूम है। मेरी उम्र सत्रह है।''

वृध्दाओं ने गुपचुप एक-दूसरे के हाथ दबाये। बहू की मूर्खता पर खीझ कर मां बोली- ''तुम्हें तो सब मालूम है। लेकिन तुम्हारे बाबूजी ने हम से खुद कहा है कि तुम्हारी उमर ग्यारह है।''

सुनकर हेम चौंक उठी, बोली- ''बाबूजी ने! कभी नहीं।''

मां ने कहा- ''तुमने तो चकित कर दिया है। समधीजी स्वयं मेरे सामने कह गये थे और बिटिया कहती है, कभी नहीं।'' यह कहकर मां ने आंख से फिर संकेत किया। अब की बार हेम संकेत समझ गई; लेकिन उसने कंठ को और भी मजबूत करके कहा, ''बाबूजी! ऐसी बात कभी नहीं कह सकते।''

मां ने स्वर को धीमा करके कहा- ''तू क्या मुझे झूठा ठहराना चाहती है?'' हेम ने फिर वही दुहराया- ''बाबूजी कभी झूठ नहीं बोलते।''

इसके बाद मां जितना भी अपवाद फैलाने लगी, उतनी ही कालिमा फैलकर सबको एकाकार लीपने-पोतने लगी। इतना ही नहीं, मां ने नाराज होकर पिताजी के सम्मुख अपनी बहू की मूढ़ता और जिद्दीपन की शिकायत रखी। पिताजी ने उसी क्षण हेम को बुलाकर धमकाते हुए कहा, ''इतनी बड़ी अविवाहित कन्या की अवस्था सत्रह वर्ष की थी, वह कन्या के लिए कोई बड़प्पन की बात है, जो उसका ढिंढोरा पीटती फिरोगी? हमारे घर में यह सब नहीं चलेगा, कहे देता हूं।''

हाय रे भाग्य, बहु रानी के प्रति पिताजी का यह मधु मिश्रित पंचम स्वर इस प्रकार उस्ताद बाजखां के घोर षडज तक कैसे उतर आया?

हेम ने व्यथित होकर पूछा- ''यदि कोई उम्र जानना चाहे तो क्या उत्तर दूं?''

पिताजी बोले- ''झूठ बोलने की आवश्यकता नहीं। कह दिया करो, मुझे नहीं पता, मेरी सास, मां जानती हैं। ''इसके बाद झूठ किस तरह बताया जाता है, इसका सारा उपदेश सुनने के बाद, हेम कुछ इस तरह चुप हो गई कि पिता जी को यह समझना बाकी न रहा कि उसका सारा सदुपदेश बिल्कुल चिकने घड़े पर पानी की तरह पड़ा।

हेम की दुर्गति पर दु:ख क्या प्रकट करूं, उसके समक्ष तो मेरा मस्तक ही नत हो गया। मैंने देखा शारदीया प्रभात के आकाश की तरह उसके नेत्रों की वह सरल उदार दृष्टि मानो किसी संशय की छाया से म्लान हो उठी? भीत मृगी की तरह मानो उसने मेरे मुख की ओर देखा और सोचा, मैं कदाचित इन्हें नहीं पहचानता।

उस दिन मैं एक सुन्दर जिल्द वाली अंग्रेजी कविताओं की एक पुस्तक क्रय करके उसके लिए ले आया था। उसने पुस्तक को अपने सुन्दर हाथों से थामा, फिर धीमे-से गोद में रखकर एक बार भी खोलकर नहीं देखा। मैंने उसके दायें हाथ को अपने हाथों में लेकर कहा- ''हेम, मुझ पर नाराज न होना, मैं तो तुम्हारे सत्य के बन्धन में बंधा हुआ हूं।''

सुनकर वह कुछ न बोली, केवल तनिक मुस्करा दी। सृष्टिकर्ता ने वैसी ही मुस्कान जिसे दी है उसे और भी कुछ कहने की आवश्यकता ही कहां?

इधर पिताजी की आर्थिक तरक्की के कुछ दिनों बाद से सृष्टिकर्ता के उस अनुग्रह को चिर-स्थायी कर रखने के स्वार्थ से हमारे यहां नए उत्साह से पूजा-पाठ चल रहा था। आज तक कभी भी पूजा-अर्चना में बहू की कभी भी बुलाहट नहीं हुई। अचानक नई वधू को पूजा का थाल सजाने का आदेश मिला। वह बोली- ''मां! मुझे समझा दो, कैसे क्या करना होगा?''

प्रश्न कुछ ऐसा न था, जिसे सुनकर किसी के सिर पर आसमान टूट पड़ता, यह तो सब लोग भली प्रकार जानते थे कि मातृहीना हेम प्रवास में ही इतनी बड़ी हुई है। तब भी इस उद्देश्य का आशय तो केवल हेम को लज्जित करना ही था। सो सभी ने अपने गाल पर हथेली रखकर कहा- ''हाय मैया, यह भला कैसी बात है? आखिर किस नास्तिक के घर की बेटी है? बहू घर की लक्ष्मी अब इस गृहस्थी से विदा होने ही वाली है? देरी मत समझना'' और इसी प्रसंग में हेम के पिता को लक्ष्य करके न जाने कितनी अकथनीय बातें की गईं?

कटु आलोचना की हवा जब से चलनी आरम्भ हुई थी, तब से हेम आज तक बराबर चुप रहकर सब सहन करती आ रही थी। कभी पल भर के लिए भी उसने किसी के सामने अश्रु न बहाये? परन्तु आज तो उसकी बड़ी-बड़ी आंखों को प्लावित करती हुई अश्रुओं की झड़ी लग गई। वह खड़ी होकर बोल उठी- ''आपको मालूम है, वहां मेरे बाबूजी को सब लोग ऋषि कहते हैं।''

ऋषि मानते हैं, सुनकर उपस्थित लोगों ने पेट भरकर दिल के गुबार निकाले। इस घटना के उपरान्त जब कभी उसके पिता का उल्लेख करना होता, तो सब लोग यही कहते, ''तुम्हारे ऋषि बाबूजी।'' इस बहू का सबसे मर्म का स्थान कौन-सा है? इसे हमारे यहां सबने अच्छी प्रकार समझ लिया था। वास्तव में मेरे श्वसुर ब्राह्मण थे और न ईसाई, और बहुत करके नास्तिक भी नहीं, पूजा-अर्चना की बात कभी उनके ध्यान में ही नहीं। बेटी को उन्होंने शिक्षित बनाने का प्रयत्न अवश्य किया था। कितने ही उपदेश भी दिये थे; किन्तु सृष्टिकर्ता के सम्बन्ध में कोई उपदेश नहीं दिया? इसी बारे में पूछने पर उन्होंने इतना ही कहा- ''जिस विषय को मैं स्वयं नहीं जानता उसे सिखलाना केवल कपट ही होगा।''

ससुराल में हेम की एक सचमुच की भक्तिन थी, मेरी छोटी भगिनी नारायणी, वह अपनी भाभी को बहुत स्नेह करती थी, उसके लिए उस बेचारी को काफी प्रताड़ना सहनी पड़ती थी। घर में हेम के अपमान की कहानी मुझे उसी से सुनने को मिलती थी। हेम के मुंह से कभी किसी दिन भी सुनने को नहीं मिला? लज्जा का आवरण उसके अपने लिए नहीं था, अपितु मेरे लिए ही था। बाबूजी के पास से वह जो पाती वह मुझे पढ़ने के लिए दे देती। ये पत्र छोटे होने पर भी रस से भरपूर होते थे। वह स्वयं भी उनको जब कभी पत्र लिखती तो मुझे अवश्य दिखा देती। बाबूजी के साथ उसका जो नाता था, उसमें अपने साथ मुझे भी बराबर का भागी बनाये बिना उसका दाम्पत्य पूर्ण जो नहीं हो पाता। उसके इन पन्नों में ससुराल के सम्बन्ध में किसी प्रकार की शिकायत का आभास मात्र भी नहीं? यदि होता, भावी आशंका की सम्भावना थी, कारण नारायणी से मैंने सुन लिया था कि जांच के लिए बीच में उसके पत्र गोपनीय रीति से खोल लिये जाते हैं। इन पत्रों में उसका कोई भी दोष सिध्द न होने से ऊपर वालों का मन शान्त हो, सो बात नहीं; बल्कि आशा टूटने का दु:ख ही सम्भवत: उन्हें ज्यादा टीसा करता था। इसलिए उन्होंने चिढ़कर कहना शुरू कर दिया कि आखिर इतनी जल्दी-जल्दी पत्र डालने की ही भला कौन-सी जरूरत है? मानो बाबा ही सब कुछ हैं। हम लोग क्या कोई नहीं?'' और इसी प्रकार की अनेक अरुचिकर बातों का तांता शुरू हो गया। मैंने क्षुब्ध होकर हेम से कहा- ''तुम बाबूजी को पत्र लिखती हो, वह किसी और को न देकर मुझे ही दे दिया करो, कॉलिज जाते समय राह में छोड़ दिया करूंगा।''

चकित होकर हेम ने कहा- ''क्यों?''

मैंने संकोचवश कोई उत्तर नहीं दिया। किन्तु हवेली में सबने कहना आरम्भ कर दिया कि अब लड़के के सिर चढ़ना शुरू हुआ है। बी.ए. की उपाधि अब ताक पर धारी रहेगी। आखिर उस बेचारे का भला दोष ही क्या है?

सो तो है ही! दोष किसी का है तो वह बेचारी हेम का। उसकी उम्र सत्रह वर्ष की है; वह उसका पहला दोष है। सृष्टिकर्ता का विधान ही ऐसा है, यह भी हेम का तीसरा दोष है। इसलिए तो मेरे हृदय के अणु-अणु में समस्त आकाश इस तरह की बांसुरी की तान साधे हुए है।

बी.ए. की उपाधि को निर्विकार भाव से मैं चूल्हे में फूंक सकता था; किन्तु हेम के कल्याण के लिए मैंने प्रण किया कि मैं अवश्य उत्तीर्ण होऊंगा और अच्छे अंकों से। दो कारणों से मुझे अपने प्रण को पूरा कर पाने का भरोसा था। एक तो हेम के अगाध स्नेह में ऐसा आकाशव्यापी विस्तार था कि वह मन को संकीर्ण, आसक्ति में फंसाकर नहीं रहती। उस स्नेह के आस-पास कोई खूब ही स्वास्थ्यवर्ध्दक वायु बहा करती थी। दूसरे परीक्षा की पुस्तकें कुछ ऐसी थी; जिन्हें हेम के साथ-साथ पढ़ना असम्भव न था। सो मैं कमर कसकर परीक्षा पास करने के उद्योग में जुट गया।

एक दिन रविवार की दुपहरिया में बाहर के कमरे में बैठा हुआ मैं मार्टिन की आचारशास्त्रावली पुस्तक की खास-खास पंक्तियों के मध्य के पथ को चीरते हुए लाल पेन्सिल का हल चलाये जा रहा था कि अचानक सामने की ओर मेरी दृष्टि जा पहुंची कमरे के सामने आंगन के उत्तर की ओर अन्त:पुर को जाने के लिए एक जीना था इसी बंद जीने में बाहर की तरफ सींकचेदार खिड़कियां थीं। मैंने देखा कि हेम उन्हीं में किसी एक खिड़की के पास पश्चिम की ओर निहारती हुई चुपचाप बैठी है। उस ओर मल्लिक की बगिया है जिसमें कचनार का पेड़ गुलाबी पुष्पों के भार को सम्भाले खड़ा हुआ है। इस भाषाहीन गहरी वेदना के रूप को आज तक इतने सुस्पष्ट भाव से मैंने नहीं देखा था। खास कुछ भी नहीं, अपने कमरे में से मैं किंचित पीछे की ओर दीवार के सहारे टिके उसके सिर के भंगी भाव भली-भांति देख पा रहा था। मेरा अपना जीवन इस तरह लबालब भर गया था कि किसी प्रकार की भी कोई शून्यता मैंने आज तक देखी ही नहीं थी। आज अकस्मात अपने बिल्कुल ही पार्श्व में मैंने किसी बहुत निराशा का घना गढ़ा देखा था। इस तलहीन गर्त को मैं क्योंकर, कैसे पूरा कर सकूंगा? मुझे तो जीवन में कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ा। न घर, न द्वार और न आज तक किसी प्रकार का अभ्यास ही; लेकिन हेम को तो सभी कुछ छोड़कर और दूर चल कर मेरे पास आना पड़ा। इसका परिणाम कितना अधिक है, सो मैंने भली-भांति सोचा भी नहीं? हमारे घर में अपमान के कांटों की सेज पर वह बैठी है। उसको हमने आपस में विभक्त कर लिया है। उस वेदना के आसव को हम दोनों ने एक साथ ही पिया था। इसलिए हम दोनों एक-दूसरे के निकट थे। परन्तु हिमाचल में पली हुई यह गिरि नन्दिनी सत्रह वर्ष की लम्बी अवधि तक अपने बाह्य और अन्त:जीवन में कैसी विशाल युक्ति के मध्य पली थी? कैसे कठोर सत्य और उदार आलोक में उसकी छवि एवं प्रकृति इस प्रकार स्वच्छ और सबल हो चुकी है? उस सारे वैभव से आज हेम का नाता किस प्रकार निष्ठुरता के साथ तोड़ दिया गया है, इस बात का, आज से पूर्व मैंने कभी अनुभव ही नहीं किया था? कारण उस स्थान पर हेम के साथ मेरा आसन बराबरी का न था। वह तो अन्दर-ही-अन्दर पल-पल तिल-तिल करके मृतप्राय-सी होती जा रही थी। उसे मैं सब दे सकता था; किन्तु मुक्ति नहीं, मुक्ति मेरे अपने अन्तर में ही कहां है? इसी हेतु कलकत्ता की इस संकरी गली में खिड़की के सींकचों के भीतर से मूक आकाश के साथ उसके मूक मन की बातचीत हुआ करती।

किसी दिन रात को उठकर मैंने देखा, वह बिछौने पर नहीं है। हाथों पर सिर को थामकर तारों से भरपूर आकाश की ओर मुंह उठाये वह छत पर लेटी है।

मार्टिन का चरित्रता का बखान वहां पड़ा रह गया। मैं सोचने लगा कि मेरा कर्त्तव्य क्या है? बाल्यकाल से ही पिताजी के साथ मेरे सम्बन्ध में मेरे संकोच की सीमा न थी। समक्ष होकर कभी उनसे किसी वस्तु के लिए प्रार्थना करने की न तो मेरी आदत ही थी और न साहस ही; किन्तु आज मुझसे न रहा गया। लाज और संकोच को ताक पर धरकर मैं उनसे कह ही बैठा- ''उसकी तबीयत आजकल कुछ अच्छी नहीं है, सो एक बार बाबूजी के यहां भेज देना ही अच्छा होगा।''

सुनकर पिताजी चकित रह गये। उनके मन में इस बात का तनिक भी संदेह न रहा कि हेम ने ही मुझ में इस अभूतपूर्व साहस का बीजारोपण किया है और अच्छी प्रकार से सिखा-पढ़ा कर यहां भेजा है। वे तत्काल ही उठकर अन्त:पुर में गए और हेम से पूछा-''बहू! तुम्हें क्या नई बीमारी है, बताना तो भला?''

हेम ने सिर झुकाकर उत्तर दिया- ''कहां, बीमारी तो कुछ भी नहीं है।''

पिता ने सोचा, उत्तर तेज दिखाने के लिए है। किन्तु हेम जो प्रतिदिन सूखती जा रही थी, सो नित्यप्रति देखते रहने के कारण हम लोग समझ नहीं पाते थे।

एक दिन बनमाली बाबू ने उसे देखा तो चौक पड़े। वे बोले- ''ऐं, यह क्या? तेरा मुख ऐसा कैसा हो गया है हेम? बीमार तो नहीं हो?''

हेम ने कहा- ''नहीं।''

परन्तु इस घटना के दस दिन बाद ही अकस्मात मेरे श्वसुर आ पहुँचे। अवश्य ही बनमाली बाबू ने हेम की तबीयत की बात लिखी होगी?''

विवाह के उपरान्त पिता से विदा लेते हुए हेम ने अपने अश्रु रोक लिये थे; किन्तु आज जैसे ही उन्होंने उसकी ठोड़ी छूकर मुंह ऊपर को उठाया तो अश्रुओं का बांध टूट गया। उसकी भीगी पलकों ने सब-कुछ बता दिया। वह बाबूजी को मुख से आधी बात भी न कह सकी। वे इतना भी न पूछ पाये कि तू कैसी है? बेटी की क्षीण गति, म्लान मुख और पलकों को देखते ही उनकी छाती टूक-टूक हो गई।

हेम बाबूजी का हाथ पकड़कर उन्हें शयन-कक्ष में ले गई। कितनी बातें तो पूछने की हैं, बाबूजी की तबीयत भी तो ठीक नहीं दिखाई देती।

हेम बाबूजी के साथ मायके जाने के लिए उद्यत हो गई। बनमाली बाबू ने भी समधीजी से इस बात का संकेत किया। लेकिन अन्तत: बात पिताजी की हो रही और उसके आगे हेम की आकांक्षा कुचल दी गई।

बाप-बेटी को विदा करने की बेला फिर एक बार आ पहुंची। बेटी ने नीरव और शुष्क मुस्कान को पीले मुख पर डालते हुए कहा-''बाबूजी! यदि फिर कभी आपने मेरे लिए पागलों की भांति बेतहाशा दौड़ते हुए इस हवेली में कदम रखा तो मैं दरवाजा बन्द कर लूंगी।''

बाबूजी ने उसी मुद्रा में उत्तर दिया- ''बेटी! भाग्य में फिर आना लिखा तो साथ में सेंध लगाने के औजार भी लेता आऊंगा।''

इसके बाद हेम के मुख की वह मुस्कान फिर कभी देखने को नहीं मिली।

फिर क्या हुआ सो मुझसे कहा नहीं जायेगा।

सुनता हूं, मां फिर उपयुक्त वधू की खोज में है। सम्भव है किसी दिन मां के अनुरोध की अवहेलना मुझसे न हो सके। यही मुमकिन है; क्योंकि खैर छोड़िये इन भेद भरी बातों की।

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