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बोझ / लेव तोलस्तॉय



कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था।

किसान ने उससे कहा, 'मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे।'

'दुश्मन मेरा क्या करेगा?' घोड़ा बोला।

'वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा।'

'तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?' घोड़े ने कहा, 'मुझे क्या फर्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूँ।'

दयामय की दया / लेव तोलस्तॉय



किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा -

हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?

इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई।

भीतर से आवाज आई - स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?

चित्रगुप्त - महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।

भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'

मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?

भीतर - योगेश्वर।

मनुष्य - योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूं, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे।

भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।

भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।

मनुष्य - महाराज, आप कौन हैं?

भीतर से - बुद्ध।

मनुष्य - महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।

बुद्ध महाराज मौन हो गए।

पापी ने फिर द्वार हिलाया।

भीतर से - कौन है?

चित्रगुप्त - स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।

भीतर से - जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।

पापी - महाराज, आपका नाम?

भीतर से - कृष्ण।

पापी - (अति प्रसन्नता से) अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं।

आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।

स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।

तकरार / लेव तोलस्तॉय



राह से गुजरते दो मुसाफिरों को एक किताब पड़ी दिखाई दी। किताब देखते ही दोनों इस बात पर तकरार करने लगे कि किताब कौन लेगा।

ऐन इसी वक्त एक और राहगीर वहाँ आ पहुँचा। उसने दोनों को इस हालत में देखकर कहा, 'भाई, यह बताओ, तुम दोनों में पढ़ना कौन जानता है?'

'पढ़ना तो किसी को नहीं आता।' दोनों ने एक साथ जवाब दिया।

'फिर तुम इस किताब के लिए तकरार क्यों कर रहे हो...। तुम्हारी लड़ाई तो ठीक उन गंजों जैसी है जो कंघी हथियाने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे हैं... जबकि कंघी फिराने के लिए उनके सिर पर बाल एक भी नहीं है।'

गुठली / लेव तोलस्तॉय



माँ ने आलूबुखारे खरीदे। सोचा, बच्चों को खाने के बाद दूँगी। आलूबुखारे मेज पर तश्तरी में रखे थे। वान्या ने आलूबुखारे कभी नहीं खाए थे

उसका मन उन्हें देखकर मचल गया। जब कमरे में कोई न था, वह अपने को रोक न सका और एक आलूबुखारा उठाकर खा लिया।खाने के समय माँ ने देखा कि तश्तरी में एक आलूबुखारा कम है। उसने बच्चों के पिता को इस बारे में बताया।

खाते समय पिता ने पूछा, 'बच्चो, तुममें से किसी ने इनमें एक आलूबुखारा तो नहीं लिया?'

सबने एक स्वर में जवाब दिया, 'नहीं।'

वान्या का मुँह लाल हो गया, किंतु फिर भी वह बोला, 'नहीं, मैंने तो नहीं खाया।'

इस पर बच्चों के पिता बोले, 'यदि तुममें से किसी ने आलूबुखारा खाया तो ठीक है, पर एक बात है। मुझे डर है कि तुम्हें आलूबुखारा खाना नहीं आता, आलूबुखारे में एक गुठली होती है। अगर वह गलती से कोई निगल ले तो एक दिन बाद मर जाता है।'

वान्या डर से सफेद पड़ गया। बोला, 'नहीं, मैंने तो गुठली खिड़की के बाहर फेंक दी थी।' सब एक साथ हँस पड़े और वान्या रोने लगा।

अंधे की लालटेन / लेव तोलस्तॉय



अँधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था। उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा। किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, 'अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात। दोनों एक से हैं। फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?'

अंधे ने उसे उत्तर दिया, 'यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अँधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे।'

राजपूत कैदी / लेव तोलस्तॉय



धर्म सिंह नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफसर था। एक दिन माता की पत्री आई कि मैं बूढ़ी होती जाती हूँ, मरने से पहले एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है, यहाँ आकर मुझे विदा कर आशीर्वाद लो और क्रिया कर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना। तुम्हारे वास्ते मैंने एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान है। यदि तुम्हें भाए तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना।

उसने सोचा- ठीक है, माता दिनों-दिन दुर्बल होती जा रही है, संभव है कि फिर मैं उसके दर्शन न कर सकूँ। इस कारण चलना ही ठीक है। कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने में क्या हानि है। वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को प्रस्तुत हो गया।

उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा था। रास्ते में सदैव भय रहता था। यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे। इस कारण यह प्रबंध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कंपनी मुसाफिरों को एक किले से दूसरे किले तक पहुँचा आया करती थी।

गरमी की रात थी। दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियाँ लाद कर तैयार हो गईं। सिपाही बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली। धर्म सिंह घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था। सोलह मील का सफर था, गाड़ियाँ धीरे-धीरे चलती थीं। कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था।

दोपहर हो चुकी थी। रास्ता आधा भी नहीं कटा था। गरम रेत उड़ रही थी। धूप आग का काम कर रही थी। छाया कहीं नहीं थी। साफ मैदान था। सड़क पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी। धर्म सिंह आगे था और कभी-कभी इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियाँ आकर मिल जाएँ। मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न चलूँ। घोड़ा तेज है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर निकल जाऊँगा। यह सोच ही रहा था कि चरन सिंह बंदूक हाथ में लिए उसके पास आया और बोला- आओ, आगे चलें। इस समय बड़ी गरमी है। भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूँ। सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं। चरनसिंह भारी भरकम आदमी था। उसका मुँह लाल था।

धर्म सिंह- तुम्हारी बंदूक भरी हुई है?

चरन सिंह- हाँ, भरी हुई है।

धर्म सिंह- अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना।

यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएं बाएं था। साफ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों ओर जा सकती थी। आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी।

धर्म सिंह- उस पहाड़ी पर चढ़ कर चारों ओर देख लेना उचित है। ऐसा न हो कि अचानक मरहठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें।

चरन सिंह- अजी, चले भी चलो।

धर्म सिंह- नहीं, आप यहाँ ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूँ।

धर्म सिंह ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया। घोड़ा शिकारी था, उसे पक्षी की भाँति ले उड़ा। वह अभी पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुँचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े। धर्म सिंह लौट पड़ा, परंतु मरहठों ने उसे देख लिया और बंदूकें सँभाल कर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके। धर्म सिंह बेतहाशा नीचे उतरा और चरन सिंह को पुकार कर कहने लगा- बंदूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला- प्यारे, अब समय है। देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जाएगा, एक बार बंदूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बाँधने का नहीं। उधर चरन सिंह मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूँछ ही पूँछ दिखाई दी, और कुछ नहीं।

धर्म सिंह ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परंतु छह मरहठे उस पर टूट पड़े। धर्म सिंह का घोड़ा तेज था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज थे। तिस पर यह बात हुई कि वे सामने से आ रहे थे। धर्म सिंह चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परंतु घोड़ा इतना तेज जा रहा था कि रुक नहीं सका। सीधा मरहठों से जा टकराया। सजे घोड़े पर सवार बंदूक उठाए लाल दाढ़ी वाला एक मरहठा दाँत निकालता हुआ उसकी ओर लपका। धर्म सिंह ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भलीभाँति जानता हूँ। यदि वे मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कंदरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एक-दो को ढेर कर दो। मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं। धर्म सिंह और मरहठों में दस हाथ का ही अंतर रह गया था कि पीछे से गोली चली। धर्म सिंह का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ ही धरती पर आ रहा।

धर्म सिंह उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्कें कसने लगे। धर्म सिंह ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परंतु दूसरों ने आकर बंदूक के कुंदों से उसे मारना शुरू किया और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मरहठों ने उसकी मुस्कें कस लीं, कपड़े फाड़ दिए, रुपया-पैसा सब छीन लिया। धर्म सिंह ने देखा कि घोड़ा जहाँ गिरा था, वहीं पड़ा है। एक मरहठे ने पास जा कर जीन उतारनी चाही। घोड़े के सिर में एक छेद हो गया था। उसमें से काला रक्त बह रहा था। दो हाथ इधर-उधर की धरती कीचड़ हो गई थी। घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था। मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया। उसने जीन उतार ली।

लाल दाढ़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया। दूसरों ने धर्म सिंह को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बाँध दिया और जंगल का रास्ता लिया।

धर्म सिंह का बुरा हाल था। मस्तक फटा था, लहू बहकर आँखों पर जम गया था। मुस्कों के मारे कंधा फटा जाता था। वह हिल नहीं सकता था। उसका सिर बार-बार मरहठे की पीठ से टकराता था। मरहठे पहाड़ियों पर ऊपर नीचे होते हुए एक नदी पर पहुँचे, उसे पार करके एक घाटी मिली। धर्म सिंह यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं। परंतु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न देख सका।

शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर चढ़ गए। यहाँ धुआं और कुत्तों का भूँकना सुनाई दिया, मानो कोई बस्ती है। थोड़ी देर चलकर गाँव आ गया। मरहठों ने गाँव छोड़ दिया, धर्म सिंह को एक ओर धरती पर बिठा दिया। बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने लगे। परंतु एक मरहठे ने उन्हें वहाँ से भगा दिया। लाल दाढ़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबला पतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था। मरहठे ने उससे कुछ कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया। मरहठों ने धर्म सिंह की मुस्कें खोल कर उसके पाँव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया।

2

उस रात धर्म सिंह जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातःकाल हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अंदर उजाला आ रहा था। झरोखे के द्वारा धर्म सिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दाईं ओर एक मरहठे का झोपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूँछ हिलाते फिर रहे हैं। एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोपड़े की ओर आ रही है। वह अंदर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिला कर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आ कर झरोखे में टहनियाँ डालने लगे। प्यास के मारे धर्म सिंह का कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परंतु वे भाग गए।

इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दाढ़ी वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका साँवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दाढ़ी थी। वह प्रसन्नमुख हँसोड़ था। यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बढ़िया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दाढ़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्म सिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। साँवला पुरुष आकर धर्म सिंह के पास बैठ गया और आँखें मटका कर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा- बड़ा अच्छा राजपूत है।

धर्म सिंह ने एक अक्षर भी न समझा- हाँ, पानी माँगा। साँवला पुरुष हँसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है। साँवले पुरुष ने पुकारा- सुशीला!

एक छोटी-सी कन्या दौड़ती हुई भीतर आई। तेरह वर्ष की अवस्था, साँवला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और रसीले, सुंदर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए। साँवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्म सिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।

फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि साँवला पुरुष हँस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।

कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गाँव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। साँवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखा कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार के आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिए लगे हुए हैं। दाईं बाईं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बंदूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पाँच मरहठे बैठे हैं। एक साँवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि- सब भोजन कर रहे हैं।

धर्म सिंह धरती पर बैठ गया। भोजन से निश्चिंत होकर एक मरहठा बोला- देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (साँवले पुरुष की ओर उंगली करके) और संपतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब संपतराव तुम्हारा स्वामी है।

धर्म सिंह कुछ न बोला। संपतराव हँसने लगा।

मरहठा- वह यह कहता है कि तुम घर से रुपए मँगवा लो, दंड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।

धर्म सिंह- कितने रुपए?

मरहठा- तीन हजार।

धर्म सिंह- मैं तीन हजार नहीं दे सकता।

मरहठा- कितना दे सकते हो?

धर्म सिंह- पाँच सौ।

यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए। संपतराव दयाराम से तकरार करने लगा और इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगा कि उसके मुँह से झाग निकल आया। दयाराम ने आँखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे। एक मरहठे ने कहा- पाँच सौ रुपए से काम नहीं चल सकता। दयाराम को संपतराव का रुपया देना है। पाँच सौ रुपए में तो संपतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि रुपया न मँगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जाएँगे।

धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डराएँगे। वह खड़ा होकर बोला- इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखाएगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूँगा। मैं तुम चांडालों से नहीं डरता।

संपतराव- अच्छा, एक हजार मँगाओ।

धर्म सिंह- पाँच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार डालोगे तो इस पाँच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।

यह सुन कर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिए हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई। धर्म सिंह उसे देख कर चकित हो गया। यह पुरुष चरन सिंह था। सेवक ने चरन सिंह को धर्म के पास बैठा दिया। वे एक दूसरे से अपनी बिथा करने लगे। धर्म सिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। चरन सिंह बोला- मेरा घोड़ा अड़ गया, बंदूक रंजक चाट गई और संपतराव ने मुझे पकड़ लिया।

संपतराव- (फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (धर्म सिंह की ओर देख कर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है। उसने पाँच हजार रुपए भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालन-पोषण भलीभाँति किया जाएगा।

धर्म सिंह- मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पाँच सौ रुपए से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।

मरहठे चुप हो गए। संपतराव झट से कलमदान उठा लाया। कागज, कमल, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पाँच सौ रुपए लेने पर राजी हो गया था।

धर्म सिंह- जरा ठहरो। देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभाँति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियाँ भी निकाल दो।

संपतराव- जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियाँ नहीं निकाल सकता। शायद तुम भाग जाओ। हाँ, रात को निकाल दिया करुँगा।

धर्म सिंह ने पत्र लिख दिया। परंतु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊँगा।

तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्म सिंह को एक कोठरी में पहुँचा कर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियाँ देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।

3

धर्म सिंह और चरन सिंह को इस प्रकार रहते-रहते एक महीना गुजर गया। संपतराव उनको देखकर सदैव हँसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अधपकी रोटी के सिवाय और कुछ न देता था। चरन सिंह उदास रहता और कुछ न करता। दिन भर कोठरी में पड़ा सोया रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूटकर अपने घर पहुँचूँ। धर्म तो जानता था कि रुपया कहाँ से आना है। जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निर्वाह करती थी। वह बेचारी पाँच सौ रुपए कैसे भेज सकती है। ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊँगा। वह घात में लगा हुआ था। कभी सीटी बजाता हुआ गाँव का चक्कर लगाता, कभी बैठ कर मिट्टी के खिलौने और टोकरियाँ बनाता। वह हाथों का चतुर था।

एक दिन उसने एक गुड़िया बना कर छत पर रख दी। गाँव की स्त्रियाँ जब पानी भरने आईं, तो सुशीला ने उनको बुला कर गुड़िया दिखलाई। वे सब हँसने लगीं। धर्म सिंह ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परंतु किसी ने नहीं ली। वह उसे बाहर रख कर कोठरी में चला गया कि देखें क्या होता है। सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई।

अगले दिन धर्म ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है। एक बुढ़िया आई। उसने गुड़िया छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी। धर्म सिंह ने और गुड़िया बनाकर सुशीला को दे दी। फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटा-सा लोटा लाई, भूमि पर रखा और धर्म को दिखा कर भाग गई। धर्म ने देखा तो उसमें दूध था। अब सुशीला नित्य अच्छे-अच्छे भोजन ला कर धर्म को देने लगी।

एक दिन आंधी आई। एक घंटा मूसलाधार मेंह बरसा, नदियाँ-नाले भर गए। बाँध पर सात फुट पानी चढ़ आया। जहाँ तहाँ झरने झरने लगे, धार ऐसी प्रबल थी कि पत्थर लु़ढ़के जाते थे। गाँव की गलियों में नदियाँ बहने लगीं। आंधी थम जाने पर धर्म सिंह ने संपतराव से चाकू माँग कर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर दो गुड़िया बाँधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा। सारा गाँव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों को नाचते देख कर तालियाँ बजाने लगा। संपतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी। धर्म सिंह ने उसे ठीक कर दिया। उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियाँ ला-ला कर धर्म से ठीक कराने लगे। इस कारण संपतराव ने प्रसन्न होकर धर्म सिंह को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी।

एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया। सब लोग धर्म सिंह के पास आ कर दवा-दारू माँगने लगे। धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिला कर कुछ मंत्र-सा पढ़ कर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो। पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया। धर्म के भाग्य अच्छे थे। अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए। हाँ, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे।

दयाराम धर्म सिंह से चिढ़ता था। जब उसे देखता, मुँह फेर लेता। पहाड़ी के नीचे एक और बू़ढ़ा रहता था। मंदिर में आने के समय धर्म सिंह उसे देखा करता था। यह बूढ़ा नाटा था। दाढ़ी मूँछ बर्फ की भाँति श्वेत, मुँह पोला, उसमें झुर्रियाँ पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दाँतों के सिवाय सब दाँत टूटे हुए। वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झाँकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब कभी धर्म सिंह को देख पाता था तो जल कर राख हो जाता और मुँह फेर लेता था।

एक दिन धर्म सिंह बूढ़े का घर देखने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरा। कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला। चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी। बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे। वृक्षों में एक झोपड़ा था। धर्म सिंह आगे बढ़ कर देखना चाहता था कि उसकी बेड़ी खड़की। बूढ़ा चौंका। कमर से पिस्तौल निकाल कर उसने धर्म सिंह पर गोली चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया। बूढ़े को आ कर संपतराव से कहते सुना कि धर्म सिंह बड़ा दुष्ट है। संपतराव ने धर्म को बुलाकर पूछा- तुम बूढ़े के घर क्यों गए थे?

धर्म सिंह बोला- मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। मैं केवल यह देखने लगा था कि वह बूढ़ा कहाँ रहता है। संपत ने बूढ़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़बड़ाता ही रहा। धर्म सिंह केवल इतना ही समझ सका कि बूढ़ा यह कह रहा है कि राजपूतों का गाँव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए। बूढ़ा चल दिया, तो धर्म सिंह ने संपतराव से पूछा कि बूढ़ा कौन है?

संपतराव- यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं। पहले यह बड़ा धनवान था। इसके तीन स्त्रियाँ और आठ पुत्र थे। सब एक ही गाँव में रहा करते थे। एक दिन राजपूतों ने धावा करके गाँव जला दिया। इसके सात पुत्र तो मर गए, आठवाँ कैद हो गया। यह बू्ढ़ा राजपूतों के पास जा कर और उनके संग रह कर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा। अंत में उसे पा कर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया। फिर विरक्त होकर तीर्थयात्रा को चला गया। अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है। यह बूढ़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहाँ से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहाँ से जाने भी न दूँगा।

इस तरह धर्म यहाँ एक महीना रहा। दिन को वह इधर-उधर फिरा करता या कोई चीज बनाता, लेकिन रात को वह दीवार में छेद किया करता। दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था। लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था। यहाँ तक कि अंत में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया। बस, अब उसे यह चिंता हुई कि रास्ता मालूम हो जाए।

एक दिन संपतराव शहर गया हुआ था। धर्म सिंह भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया। संपतराव बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि धर्म सिंह को आँखों से परे न होने देना। इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्ला कर कहने लगा- मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गाँव वालों को बुला लूँगा।

धर्म सिंह बालक को फुसलाने लगा- मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है। रोगियों के वास्ते मुझे एक बूटी की जरूरत है, तुम भी साथ चलो। बेड़ी के होते कैसे भागूँगा? असंभव है। आओ, कल मैं तुमको तीर-कमान बना दूँगा।

बालक मान गया। पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी। बेड़ी के कारण चलना कठिन था, परंतु ज्यों त्यों करके धर्म सिंह चोटी पर पहुँच कर चारों ओर देखने लगा। दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखाई दी। उसमें घोड़े चल रहे थे। घाटी के नीचे एक गाँव था। उससे परे एक ऊँची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी। इन पहाड़ियों के बीचों बीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊँचे। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं। कंदराओं में से जहाँ-तहाँ गाँवों का धुआं उठ रहा था। वास्तव में यह मरहठों का देश था। उत्तर की ओर देखा, तो पैरों तले एक नदी बह रही है और वही गाँव है, जिसमें वह रहा करता था। गाँव के चारों ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियाँ नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं। गाँव से परे एक पहाड़ी थी, परंतु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची। उससे परे दो पहाड़ियाँ और थीं, उन पर घना जंगल था। इनके बीच में मैदान था। मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआं-सा दिखाई दिया। अब धर्म सिंह को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहाँ से उदय होता और कहाँ अस्त हुआ करता था। उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा।

अँधेरा हो गया। मंदिर का घंटा बजने लगा। पशु घर लौट आए। धर्म सिंह भी अपनी कोठरी में आ गया। रात अँधेरी थी। उसने उसी रात भागने का विचार किया पर दुर्भाग्य से संध्या समय मरहठे घर लौट आए। आज उनके साथ एक मुर्दा था। मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है।

मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थी बना 'राम नाम सत्त' कहते हुए गाँव से बाहर जाकर शमशान भूमि में दाह करके घर लौट आए। तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए। संपतराव घर ही में रहा। रात अँधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।

धर्म सिंह ने सोचा कि रात को भागना ठीक है। चरन सिंह से कहा- भाई चरन सुरंग तैयार है। चलो, भाग चलें।

चरन सिंह- (भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?

धर्म सिंह- रास्ता मैं जानता हूँ।

चरन सिंह- माना कि तुम रास्ता जानते हो, परंतु एक रात में किले तक नहीं पहुँच सकते।

धर्म सिंह- यदि किले तक नहीं पहुँच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में छिप कर दिन काट लेंगे। देखो, मैंने भोजन का प्रबंध भी कर लिया है। यहाँ पड़े-पड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर से रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है। इस कारण यह सब बहुत बिगड़े हुए हैं। भागना ही उचित है।

चरन सिंह- अच्छा, चलो।

4

गाँव में जब सन्नाटा हो गया, तो धर्म सिंह सुरंग से बाहर निकल आया। पर चरन सिंह के पैर से एक पत्थर गिर पड़ा। धमाका हुआ तो संपतराव का कुत्ता भूँका, लेकिन धर्म सिंह ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुन कर वह चुप हो गया।

रात अँधेरी थी। तारे निकले हुए थे। चारों ओर सन्नाटा था। घाटियाँ धुंध से ढँकी हुई थीं। चलते-चलते रास्ते में किसी छत पर से एक बू़ढ़े के राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी। दोनों दुबक गए। थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे बढ़े।

धुंध बहुत छा गई। धर्म सिंह तारों की ओर देख कर राह चलने लगा। ठंड के कारण चलना सहज न था, धर्म सिंह कूदता फाँदता चला जाता था, चरन सिंह पीछे रहने लगा।

चरन सिंह- भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए।

धर्म सिंह- जूते निकाल कर फेंक दो, नंगे पैर चलो।

चरन सिंह ने जूते निकाल कर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पाँव घायल कर दिए। वह ठहर-ठहर कर चलने लगा।

धर्म सिंह- देखो चरन, पाँव तो फिर चंगे हो जाएँगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ लो कि जान गई।

चरन सिंह चुप होकर पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाने पर धर्म सिंह बोला- हाय, हाय, हम रास्ता भूल गए, हमें तो बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ना चाहिए था।

चरन सिंह- ठहरो, जरा दम लेने दो। मेरे पैर घायल हो गए हैं। देखो, रक्त बह रहा है।

धर्म सिंह- कुछ चिंता नहीं, ये सब ठीक हो जाएँगे, तुम चले चलो।

वे लौट कर बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ गए। आगे जंगल मिला। झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले। इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए। समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा है।

प्रातःकाल होने लगा। किला यहाँ से अभी सात मील पर था। मैदान में पहुँचकर चरन सिंह बैठ गया और बोला- मेरे पाँव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता।

धर्म सिंह- (क्रोध से) अच्छा तो रामराम, मैं अकेला ही चलता हूँ।

चरन सिंह उठकर साथ हो लिया। तीन मील चलने पर अचानक सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी। वे भागकर जंगल में घुस गए।

धर्म सिंह ने देखा कि घोड़े पर चढ़ा हुआ एक मरहठा जा रहा है। जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं देखा। चरन भाई, अब चलो।

चरन सिंह- मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं।

चरन सिंह मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए। धर्म सिंह उसे उठाने लगा, तो चरन सिंह ने चीख मारी।

धर्म सिंह- हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ।

धर्म सिंह ने चरन सिंह को पीठ पर बिठला कर किले की राह ली।

धर्म सिंह- भाई चरन सिंह, सीधी तरह बैठे रहो, गला क्यों घोंटते हो?

5

अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने चरन सिंह का शब्द सुन लिया। उसने गोली चलाई, परंतु खाली गई। मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ा कर चल दिया।

धर्म सिंह- चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जाएँगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।

चरन सिंह- तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?

धर्म सिंह- कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर चल देना धर्म के विरुद्ध है।

धर्म सिंह फिर चरन सिंह को कंधे पर लाद कर चलने लगा। आधा मील चलने पर एक झरना मिला। धर्म सिंह बहुत थक गया था। चरन सिंह को कंधे से उतार कर विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों भाग कर झाड़ियों में छिप गए।

मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहाँ दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा। फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को घोड़ों पर लाद लिया। राह में संपतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरंत उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलते-निकलते वे सब ग्राम में पहुँच गए।

उसी समय बू़्ढ़ा भी वहाँ आ गया। सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए। बू़्ढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरंत वध कर दो।

संपतराव- मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूँ?

बूढ़ा- राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मार कर झगड़ा समाप्त करो।

मरहठे इधर-उधर चले गए। संपतराव धर्म सिंह के पास आया और बोला- देखो धर्म सिंह, पंद्रह दिन के अंदर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा, इसमें संदेह नहीं। अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरंत रुपया भेज दें।

दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भाँति कैद कर दिए गए, परंतु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।

6

अब उन्हें अत्यंत कष्ट दिया जाने लगा। न बाहर जा पाते थे, न बेड़ियाँ निकाली जाती थीं। कुत्तों के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुँचा दिया जाता था, और कुछ नहीं। गड्ढा सीला था, उसमें अँधेरा और अति दुर्गंध थी। चरन सिंह का सारा शरीर सूख गया, धर्म सिंह मनमलीन, तनछीन रहने लगा। करे तो क्या करे?

धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है।

धर्म सिंह ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है। अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूँ। कल जब आएगी, तब इसे देकर फिर बात करुँगा।

दूसरे दिन सुशीला नहीं आई। धर्म सिंह के कान में घोड़ों के टापों की आवाज आई। कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए। वे सब बातें करते जाते थे। धर्म सिंह को और तो कुछ न समझ में आया- हाँ, 'राजपूत' शब्द बारबार सुनाई दिया। इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों की सेना कहीं निकट आ पहुँची है।

तीसरे दिन सुशीला फिर आई और दो रोटियाँ गड्ढे में फेंक दीं, तब धर्म सिंह बोला- तू कल क्यों नहीं आई? देख, मैंने तेरे वास्ते ये खिलौने बनाए हैं।

सुशीला- खिलौने लेकर क्या करुँगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए। उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार कल पक्का कर लिया है। सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी।

धर्म सिंह- कौन मारना चाहता है?

सुशीला- मेरा पिता। बूढ़े ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है। मुझे तो यह सुनकर रोना आता है।

धर्म सिंह- यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बाँस ला दो।

सुशीला- यह नहीं हो सकता।

धर्म सिंह- सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि एक बाँस ला दो।

सुशीला-बाँस कैसे लाऊँ, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे। यह कह कर वह चली गई।

सूर्य अस्त हो गया। तारे चमकने लगे। चाँद अभी नहीं निकला था, मंदिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया। धर्म सिंह इस विचार में बैठा था कि सुशीला बाँस लाएगी अथवा नहीं।

अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी। देखा तो सामने की दीवार में बाँस लटक रहा है। धर्म सिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बाँस को नीचे खींच लिया।

बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे। गड्ढे के किनारे पर मुँह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा- धर्म सिंह, सिवाय दो के और सब बाहर चले गए हैं।

धर्म सिंह ने चरन सिंह से कहा- भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न कर देखें, हिम्मत न हारो। चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूँ।

चरनसिंह- मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा। मैं नहीं भाग सकता।

धर्म सिंह- अच्छा, रामराम, परंतु मुझे निर्दयी मत समझना।

धर्म सिंह चरन सिंह से गले मिला, बाँस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा धर्म सिंह ने। इस भाँति वह बाहर निकल आया।

धर्म सिंह- सुशीला, तुम्हें भगवान कुशल से रखें। मैं जन्मभर तुम्हारा जस गाऊँगा। अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना।

धर्म सिंह ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी। वह उसे हाथ में उठा कर चलने लगा। वह चाहता था कि चंद्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुँच जाय, परंतु पहुँच न सका। चंद्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुँचने तक राह में कोई न मिला।

धर्म सिंह फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ। वह थक गया, हाथ-पाँव घायल हो गए। विचारने लगा, अब क्या करुँ? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं। यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा। माना कि प्रातःकाल से पहले किले में नहीं पहुँच सकता, न सही, दिन भर जंगल में काट दूँगा, रात आने पर फिर चल दूँगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया।

चाँद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा। जंगल पीछे छूट गया, साफ मैदान आ गया। किला दिखाई देने लगा। बाईं ओर देखने पर मालूम हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं। धर्म सिंह मगन हो गया और बोला- अब क्या है, परंतु ऐसा न हो कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों तक न पहुँच सकूँ, इस कारण जितना भागा जाए भागो।

इतने में बाईं ओर दो सौ कदम की दूरी पर कुछ मरहठे दिखाई दिए। धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा- भाइयों, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!

राजपूत सिपाहियों ने धर्म सिंह की पुकार सुन ली। मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे। वे दौड़े, धर्म सिंह भी बेड़ी उठा कर 'भाइयों, भाइयों' कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए।

राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो, परंतु धर्म सिंह घबराया हुआ 'भाइयों, भाइयों' पुकारता चला जाता था। निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया। धर्म सिंह सारा वृत्तांत कह कर बोला- भाइयों, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया। विधाता की यही लीला थी।

एक महीना पीछे पाँच हजार मुद्रा देकर चरन सिंह छूटकर किले में आया। वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था।

मूर्ख सुमंत / लेव तोलस्तॉय



एक समय एक गांव में एक धनी किसान रहता था। उसके तीन पुत्र थे-विजय सिपाही, तारा वणिक, सुमंत मूर्ख। गूंगीबहरी मनोरमा नाम की एक कुंवारी कन्या भी थी। विजय तो जाकर किसी राजा की सेना में भर्ती हो गया। तारा ने किसी परसिद्ध नगर में सौदागरी की कोठी खोल ली। मूर्ख समुन्त और मनोरमा मातापिता के पास रहकर खेती का काम करने लगे।

विजय ने सेना में ऊंची पदवी पराप्त करके एक इलाका मोल ले लिया और एक मालदार पुरुष की कन्या से विवाह कर लिया। उसकी आमदनी का कुछ ठिकाना न था, परन्तु फिर भी कुछ न बचता था।

विजय एक समय इलाके पर पहुंचकर किसानों से बटाई मांगने लगा। किसान बोले कि महाराज हमारे पास न बैल हैं, न हल, न बीज। बटाई कहां से दें? पहले यह सामगरी जमा कर दो, फिर आपको इलाके से बहुत अच्छी आमदनी होने लगेगी। यह सुनकर विजय अपने पिता के पास पहुंचा और बोला-पिताजी, इतना धनी होने पर भी आपने मेरी कुछ सहायता नहीं की। मैंने सेना में काम किया और राजा को परसन्न कर एक इलाका मोल लिया। उसके बन्धन के लिए धन की जरूरत है। मैं तीसरे भाग का हिस्सेदार हूं, इसलिए मेरा भाग मुझे दे दीजिए कि अपना इलाका ठीक करुं।

पिता-भला मैं पूछता हूं कि तुमने नौकरी पर रहते हुए कभी कुछ घन भी भेजा? सब काम सुमंत करता है। मेरी समझ में तुम्हें तीसरा भाग देना सुमंत और मनोरमा के साथ अन्याय करना है।

विजय-सुमंत तो मूर्ख है। मनोरमा गूंगी और बहरी है। उन्हें धन का क्या काम है। वे धन से क्या लाभ उठा सकते हैं?

पिता-अच्छा, सुमंत से पूछ लूं।

पिता के पूछने पर सुमंत ने परसन्नतापूर्वक यही कहा कि विजय को उसका तीसरा भाग दे देना चाहिए।

विजय तीसरा भाग लेकर राजा के पास चला गया।

तारा ने भी व्यापार में बहुत धन संचय करके एक धनी पुरुष की पुत्री से विवाह किया। परन्तु धन की लालसा फिर भी बनी रही। वह भी पिता के पास आकर तीसरा भाग मांगने लगा।

पिता-मैं तुम्हें एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता। विचारो तो, तुमने सौदागरी की कोठी खोलकर इतना धन इकट्ठा किया, कभी पिता को भी पूछा? यहां जो कुछ है, सब सुमंत की कमाई का फल है। उसका पेट काटकर तुम्हें दे देना अनुचित है।

तारा-मूर्ख सुमंत को धन लेकर करना ही क्या है? आपके विचार में सुमंत जैसे मूर्ख से कोई भी पुरुष अपनी कन्या ब्याह देगा? कदापि नहीं! रही मनोरमा, वह गूंगी और बहरी है। मैं सुमंत से पूछ लेता हूं कि वह क्या कहता है!

तारा के पूछने पर सुमंत ने तीसरा भाग देना तुरन्त स्वीकार कर लिया और तारा भी अपना भाग लेकर चम्पत हुआ। सुमंत के पास जो कुछ सामान बच रहा, उसी से खेती का काम करके मातापिता की सेवा करने लगा।

2

यह कौतुक देखकर अधर्म बड़ा दुःखी हुआ कि भाइयों ने परीतिसहित धन बांट लिया। जूतीपैजार कुछ भी न हुई। तीन भूतों को बुलाकर कहने लगा-देखो विजय, तारा, सुमंत तीन भाई हैं। धन बांटते समय उन्हें आपस में झगड़ा करना उचित था, परन्तु मूर्ख सुमंत ने सब काम बिगाड़ डाला। उसी की मू़ता से तीनों भाई आनन्द से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तुम जाओ और एकएक के पीछे पड़कर ऐसा उत्पात मचाओ कि सबके-सब आपस में लड़ मरें। देखना, बड़ी चतुराई से काम करना।

तीनों भूत-धमार्वतार! जो तीनों को आपस में लड़ालड़ाकर मार न डाला, तो हमारा नाम अधर्मराज के भूत ही नहीं।

अधर्म-वाहवाह, शाबास! जाओ, मगर जो बिना काम पूरा किए लौटे तो खाल खींच लूंगा। इतना समझ लो।

तीनों भूत चलकर एक झील के किनारे बैठ गए और यह निश्चय किया कि कौन कौन किसकिस भाई के पीछे लगे और साथ ही नियम बांध दिया कि जिस भूत का कार्य पहले समाप्त हो जाए, वह तुरन्त दूसरे भूतों की सहायता करे।

कुछ दिन पीछे वे तीनों फिर उसी झील पर जमा हुए और अपनीअपनी कथा कहने लगे।

पहला-भाई साहब, मेरा काम तो बन गया। विजय भागकर पिता की शरण लेने के सिवाय अब और कुछ नहीं कर सकता।

दूसरा-बताओ तो उसे कैसे फांसा?

पहला-मैंने विजय को इतना घमंडी बना दिया कि वह एक दिन राजा से कहने लगा कि महाराज, यदि आप मुझे सेनापति की पदवी पर नियत कर दें तो मैं आपको सारे जगत का चक्रवर्ती राजा बना दूं। राजा ने उसे तुरन्त सेनापति बनाकर आज्ञा दी कि लंका के राजा को पराजित कर दो। बस फिर क्या था, लगी युद्ध की तैयारियां होने। लड़ाई छिड़ने से एक रात पहले मैंने विजय का सारा बारूद गीला कर दिया। उधर लंका के राजा के लिए घास के अनगिनत सिपाही बना दिये। दोनों सेनाओं के सम्मुख होने पर विजय के सिपाहियों ने घास के बने हुए अनन्त योद्घाओं को देखा तो उनके छक्के छूट गए। विजय ने गोले फेंकने का हुक्म दिया। बारूद गीली हो ही चुकी थी, तोपें आग कहां से देतीं? फल यह हुआ कि विजय की सेना को भागना ही पड़ा। राजा ने क्रोध करके उसका बड़ा अपमान किया। उसका इलाका छिन गया। इस समय वह बन्दीखाने में कैद है। बस, केवल यह काम शेष रह गया, कि उसे बन्दीखाने से निकालकर उसको पिता के घर पहुंचा दूं। फिर छुट्टी है, जो चाहे उसकी सहायता के लिए तैयार हूं।

दूसरा-मेरा कार्य भी सिद्ध हो गया है। तुम्हारी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं। तारा को पहले तो मोटा करके आलसी बनाया। फिर इतना लोभी बना दिया कि वह संसारभर का माल लेलेकर कोठरी भरने लगा। उसकी खरीद अभी तक जारी है। उसका सब धन खर्च हो गया और अब उधार रुपया लेकर माल ले रहा है। एक सप्ताह में उसका सब माल सत्यानाश कर दूंगा और तब उसे सिवाय पिता की शरण जाने के और कोई उपाय न रहेगा।

तीसरा-भाई, हमारा हाल तो बड़ा पतला है। पहले मैंने सुमंत के पीने के पानी में पेट में दर्द उत्पन्न करने वाली बूटी मिलायी, फिर खेत में जाकर धरती को ऐसा कड़ा कर दिया कि उस पर हल न चल सके। मैं समझता था कि पीड़ा के कारण वह खेत बाहने न आएगा। परन्तु वह तो बड़ा ही मू़ है। आया और हल चलाने लगा। हायहाय करता जाता था, परन्तु हल हाथ से न छोड़ता था। मैंने हल तोड़ दिया, वह घर जाकर दूसरा ले आया। मैंने धरती में घुसकर हल की आनी पकड़ ली, उसने ऐसा धक्का मारा कि मेरे हाथ कटतेकटते बचे। उसने केवल एक टुकड़े के सिवाय बाकी सारा खेत बाह लिया है। यदि तुम मेरी सहायता न करोगे तो सारा खेल बिगड़ जाएगा; क्योंकि यदि वह इस परकार खेतों को बाहता और बोता रहा, तो उसके भाई भूखे नहीं मर सकते। फिर बैरभाव किस भांति उत्पन्न हो सकता है? सुखपूर्वक उनका पालनपोषण करता रहेगा।

पहला-कुछ चिंता नहीं। देखा जाएगा। घबराओ नहीं। कल अवश्य तुम्हारे पास आऊंगा।

3

सुमंत हल चला रहा था, अचानक पैर एक झाड़ी में फंस गया। उसे अचम्भा हुआ कि खेत में तो कोई झाड़ी न थी, यह कहां से आयी। बात यह थी कि भूत ने झाड़ी बनाकर सुमंत की टांग पकड़ ली थी।

सुमंत ने हाथ डालकर झाड़ी को जड़ से उखाड़ डाला, देखा तो उसमें काले रंग का एक भूत बैठा हुआ है।

सुमंत-(गला दबाकर) बोला, दबाऊं गला?

भूत-मुझे छोड़ दो। मुझसे जो कहोगे, वही करुंगा।

सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?

भूत-सब कुछ।

सुमंत-मेरे पेट में दर्द हो रहा है, उसे अच्छा कर दो।

भूत-बहुत अच्छा।

भूत ने धरती में से तीन बूटियां लाकर एक बूटी सुमंत को खिला दी, दर्द बंद हो गया और दूसरी दो बूटियां सुमंत को देकर बोला-जिसको एक बूटी खिला दोगे, उसके सब रोग तत्काल दूर हो जायेंगे। अब मुझे जाने की आज्ञा दो। मैं फिर कभी न आऊंगा।

सुमंत-हां, जाओ, परमात्मा तुम्हारा भला करे।

परमात्मा का नाम सुनते ही भूत रसातल चला गया। केवल वहां एक छेद रह गया।

सुमंत ने दूसरी दो बूटियां पगड़ी में बांध लीं और घर चला आया, देखा कि विजय और उसकी स्त्री आये हुए हैं। बड़ा परसन्न हुआ।

विजय बोला-भाई सुमंत, जब तक मुझे नौकरी न मिले, तुम हम दोनों को यहां रख सकते हो?

सुमंत-क्यों नहीं, आपका घर है। आप आनन्द से रहिए।

भोजन करते समय विजय की सभ्य स्त्री पति से बोली कि सुमंत के शरीर से मुझे दुर्गन्ध आती है, इसे बाहर भेज दो।

विजय-सुमंत, मेरी स्त्री कहती है कि तुम्हारे शरीर से दुगरंध आती है। पास बैठा नहीं जाता। तुम बाहर जाकर भोजन कर लो।

सुमंत-बहुत अच्छा, तुम्हें कष्ट न हो।

4

दूसरे दिन विजय वाला भूत खेत में आकर सुमंत वाले भूत को खोजने लगा। कहीं पता नहीं मिला, खेत के एक कोने पर छेद दिखाई दिया।

भूत जान गया कि साथी काम आया और खेत जुत चुका। क्या हुआ, चरावर में चलकर इस मूर्ख को देखता हूं। सुमंत के चरावर में पहुंचकर उसने इतना पानी छोड़ा कि सारी घास उसमें डूब गई।

इतने में सुमंत वहां आकर हंसुवे से घास काटने लगा। हंसुवे का मुंह मुड़ गया, घास किसी तरह न कटती थी। सुमंत ने सोचा कि यहां वृथा समय गंवाने से क्या लाभ होगा, पहले हंसुवा तेज करना चाहिए। रहा काम, यह तो मेरा धर्म है। एक सप्ताह क्यों न लग जाए, मैं घास काटे बिना यहां से चला जाऊं मेरा नाम सुमंत नहीं।

सुमंत घर जाकर हंसुवा ठीक कर लाया। भूत ने हंसुवा को पकड़ने का साहस किया, परंतु पकड़ न सका, क्योंकि सुमंत लगातार घास काटे जाता था। जब केवल घास का एक छोटासा टुकड़ा शेष रह गया तो भूत भागकर उसमें जा छिपा।

सुमंत कब रुकने वाला था! वह वहां पहुंचकर घास काटने लगा। भूत वहां से भागा भागते समय उसकी पूंछ कट गई।

भूत ने विचारा कि चलो, जयी के खेतों में चलें, देखें जयी कैसे काटता है। वहां जाकर देखा तो जयी कटी पड़ी है।

भूत ने विचार किया कि यह मूर्ख बड़ा चांडाल है। दिन निकलने नहीं दिया। रातरात में सारी जयी काट डाली। यह दुष्ट तो रात को भी काम में लगा रहता है। अच्छा, खलिहान में चलकर इसका भूसा सड़ाता हूं।




भूत भागकर चरी में छिप गया। सुमंत गाड़ी लेकर चरी लादने के लिए खलिहान में पहुंचा। एकएक पूली उठाकर गाड़ी में रखने लगा कि एक पूला में से भूत निकल पड़ा।

सुमंत-अरे दुष्ट, तू फिर आया?




भूत-मैं दूसरा हूं, पहला मेरा भाई था।

सुमंत-कोई हो, अब जाने न पाओगे।

भूत-कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए। आप जो आज्ञा दें, वही करने को तैयार हूं।

सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?




भूत-मैं भूसे के सिपाही बना सकता हूं।

सुमंत-सिपाही क्या काम देते हैं?




भूत-तुम उनसे जो चाहो, सो काम करा सकते हो।

सुमंत-वे गाना गा सकते हैं?




भूत-क्यों नहीं!

सुमंत-अच्छा, बनाओ।




भूत-तुम चरी के पूले लेकर यह मंत्र पॄो-'हे पूले, मेरी आज्ञा से सिपाही बन जा' और फिर पूले को धरती पर मारो, सिपाही बन जाएगा।




सुमंत ने वैसा ही किया, पूले सिपाही बनने लगे। यहां तक कि पूरी पलटन बन गई और मरू बाजा बजने लगा।

सुमंत-(हंसकर) वाह भाई, वाह! यह तो खूब तमाशा है, इसे देखकर बालक बहुत परसन्न होंगे।

भूत-आज्ञा है, अब जाऊं?

सुमंत-नहीं, अभी मुझे फिर पूले बना देने का मंत्र भी सिखा दो, नहीं तो ये हमारा सारा अनाज ही चट कर जायेंगे।

भूत बस, यह मंत्र पॄो-'हे सिपाही, मेरे सेवक, मेरी आज्ञा से फिर पूले बन जाओ।' तब यह सब फिर पूले बन जायेंगे।

सुमंत ने मंत्र पॄा, सबके-सब पूले बन गए।

भूत-अब जाऊं? आज्ञा है।

सुमंत-हां जाओ, भगवान तुम पर दया करे।

भगवान का नाम सुनते ही भूत धरती में समा गया। पहले की भांति एक छेद शेष रह गया।

सुमंत जब घर लौटा तो देखा कि स्त्री सहित मंझला भाई तारा आया हुआ है। वह सुमंत से बोला-भाई सुमंत, लेहनेदारों के डर से भागकर तुम्हारे पास आये हैं। जब तक कोई रोजगार न करें, यहां ठहर सकते हैं कि नहीं?

सुमंत-क्यों नहीं, घर किसका और मैं किसका? आप आनंद से रहिए।

भोजन परसे जाने पर तारा की स्त्री ने तारा से कहा कि मैं गंवार के पास बैठकर भोजन नहीं कर सकती।

तारा-भाई सुमंत, मेरी स्त्री तुमसे घिन करती है। बाहर जाकर भोजन कर लो।

सुमंत-अच्छी बात है। आपका चित्त परसन्न चाहिए।

5

दूसरे दिन तारा वाला भूत सुमंत को दुःख देने के वास्ते खेत में पहुंचकर साथियों का ढूंढने लगा, पर किसी का पता न चला। खोजतेखोजते एक छेद तो खेत के कोने में मिला, दूसरा खलिहान में। उसे मालूम हो गया कि दोनों के दोनों यमलोक जा पहुंचे। अब मुझी से इस मूर्ख की बनेगी। देखूं कहां बचकर जाता है।

अतएव वह सुमंत की खोज लगाने लगा। सुमंत उस समय मकान बनाने के वास्ते जंगल में वृक्ष काट रहा था। दोनों भाइयों के आ जाने से घर में आदमियों के लिए जगह न थी। भाई यह चाहते थे कि अलगअलग मकान में रहें, इसलिए मकान बनाना आवश्यक हो गया था।

भूत वृक्ष पर च़कर शाखाओं में बैठ, सुमंत के काम में विघ्न डालने लगा। सुमंतकब टलने वाला था, संध्या होतेहोते उसने कई वृक्ष काट डाले। अंत में उसने उस वृक्ष को भी काट दिया, जिस पर भूत च़ा बैठा था। टहनियां काटते समय भूत उसके हाथ में आ गया।

सुमंत-हैं! तुम फिर आ गए?

भूत-नहींनहीं, मैं तीसरा हूं। पहले दोनों मेरे भाई थे।

सुमंत-कुछ भी हो, अब मैं नहीं छोड़ने का।

भूत-तुम जो कुछ कहोगे, वही करुंगा। कृपा करके मुझे जान से न मारिए।

सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?

भूत-मैं वृक्ष के पत्तों से सोना बना सकता हूं।

सुमंत-अच्छा, बनाओ।

भूत ने वृक्ष के सूखे पत्ते लेकर हाथ से मले और मंत्र पॄकर सोना बना दिया। सुमंत ने मंत्र सीख लिया और सोना देखकर परसन्न हुआ।

सुमंत-भाई भूत, इसका रंग तो बड़ा सुन्दर है, बालकों के खिलौने इसके अच्छे बन सकते हैं।

भूत-अब आज्ञा है, जाऊं?

सुमंत-जाओ, परमेश्वर तुम पर अनुगरह करें।

परमेश्वर का नाम सुनते ही यह भूत भी भूमि में समा गया, केवल छेद ही छेद बाकी रह गया।

6

घर बनाकर तीनों भाई सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। जन्माष्टमी के त्योहार पर सुमंत ने भाइयों को भोजन करने को नेवता भेजा। उन्होंने उत्तर दिया कि हम गवारों के साथ परीतिभोजन नहीं कर सकते।

सुमंत ने इस पर कुछ बुरा नहीं माना। गांव के स्त्रीपुरुष, बालक और बालिकाओं को एकत्र करके भोजन करने लगा।

भोजन करने के उपरांत सुमंत बोला-क्यों भाई मित्रो, एक तमाशा दिखलाऊं?

सब-हां, दिखालाइए।

सुमंत ने सूखे पत्ते लेकर सोने का एक टोकरा भर दिया और लोगों की ओर फेंकने लगा। किसान लोग सोने के टुकड़े लूटने लगे। आपस में इतना धक्कमधक्का हुआ कि एक बेचारी बुयि कुचल गई।

समंत ने सबको धिक्कार कर कहा-तुम लोगों ने बू़ी माता को क्यों कुचल दिया शांत हो जाओ तो और सोना दूं। यह कहकर टोकरी का सब सोना लुटा दिया। फिर सुमंत ने स्त्रियों से कहा कि कुछ गाओ। स्त्रियां गाने लगीं।

सुमंत-हूं, तुम्हें गाना नहीं आता।

स्त्रियां-हमें तो ऐसा ही आता है, और अच्छा सुनना हो तो किसी और को बुला लो।

सुमंत ने तुरंत ही भूसे के सिपाही बनाकर पलटन खड़ी कर दी, बैंड बजने लगा। गंवार लोगों को बड़ा ही अचम्भा हुआ। सिपाही बड़ी देर तक गाते रहे, तब सुमंत ने उनको फिर भूसा बना दिया और सब लोग अपनेअपने घर चले गए।

7

परातःकाल विजय ने यह चचार सुनी तो हांफताहांफता सुमंत के पास आया, बोला-भाई सुमंत, यह सिपाही तुमने किस रीति से बनाए थे?

सुमंत-क्यों? आपको क्या काम है?

विजय-काम की एक ही कही। सिपाहियों की सहायता से तो हम राज्य जीत सकते हैं।

सुमंत-यह बात है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? खलिहान में चलिए, वहां चलकर जितने कहो, उतने सिपाही बना देता हूं, परंतु शर्त यह है कि उन्हें तुरंत ही यहां से बाहर ले जाना, नहीं तो वे गांव का गांव चट कर जायेंगे।

अतएव खलिहान में जाकर उसने कई पलटनें बना दीं और पूछा-बस कि और?

विजय-(परसन्न होकर) बस बहुत है, तुमने बड़ा एहसान किया।

सुमंत-एसान की कौनसी बात है। अब के वर्ष भूसा बहुत हुआ है यदि कभी टोटा पड़ जाय तो फिर आ जाना, फिर सिपाही बना दूंगा।

अब विजय धरती पर पांव नहीं रखता था। सेना लेकर उसने तुरंत युद्ध करने के वास्ते परस्थान कर दिया।

विजय के जाते ही तारा भी आ पहुंचा और सुमंत से बोला-भाई साहब, मैंने सुना है कि तुम सोना बना लेते हो। हायहाय! यदि थोड़ासा सोना मुझे मिल जाए तो मैं सारे संसार का धन खींच लूं।

सुमंत-अच्छा, सोने में यह गुण है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? बतलाओ, कितना सोना बना दूं?

तारा-तीन टोकरे बना दो।

सुमंत ने तीन टोकरे सोना बना दिया।

तारा-आपने बड़ी दया की।

सुमंत-दया की कौन बात है, जंगल में पत्ते बहुत हैं। यदि कमी हो जाय तो फिर आ जाना, जितना सोना मांगोगे, उतना ही बना दूंगा।

सोना लेकर तारा व्यापार करने चल दिया।

विजय ने सेना की सहायता से एक बड़ा भारी राज्य विजय कर लिया। उधर तारा के धन का भी पारावार न रहा। एक दिन दोनों में मुलाकात हुई। बातें होने लगीं।

विजय-भाई तारा, मैंने तो अपना राज्य अलग बना लिया और अब चैन करता हूं, परंतु इन सिपाहियों का पेट कहां से भरुं? रुपये की कमी है, सदैव यही चिंता बनी रही है।

तारा-तो क्या आप समझते हैं कि मुझे चिन्ता नहीं है, मेरे धन की गिनती नहीं, पर उसकी रख वाली करने को सिपाही नहीं मिलते। बड़ी विपत्ति में पड़ा हूं।

विजय-चलिए, सुमंत मूर्ख के पास चलें। मैं तुम्हारे वास्ते थोड़े से सिपाही बनवा दूं और तुम मेरे लिए थोड़ासा सोना बनवा दो।

तारा-हां, ठीक है, चलिए।

दोनों भाई सुमंत के पास पहुंचे।

विजय-भाई सुमंत, मेरी सेना में कुछ कमी है, कुछ सिपाही और बना दो।

सुमंत-नहीं, अब मैं और सिपाही नहीं बनाता।

विजय-पर तुमने वचन जो दिया था, नहीं तो मैं आता ही क्यों? कारण क्या है? क्यों नहीं बनाते?

सुमंत-कारण यह कि तुम्हारे सिपाहियों ने एक मनुष्य को मार डाला। कल जब मैं अपना खेत जोत रहा था, तो पास से एक अरथी देखी। मैंने पूछा, कौन मर गया? एक स्त्री ने कहा कि विजय के सिपाहियों ने युद्ध में मेरे पति को मार डाला। मैं तो आज तक केवल यह समझता था कि सिपाही बैंड बजाया करते हैं, परन्तु वे तो मनुष्य की जान मारने लगे। ऐसे सिपाही बनाने से तो संसार का नाश हो जाएगा।

तारा-अच्छा, यदि सिपाही नहीं बनाते, तो मेरे लिए सोना तो थोड़ासा और बना दो। तुमने वचन दिया था कि कमी हो जाने पर फिर बना दूंगा।

सुमंत-हां, वचन तो दिया था, पर मैं अब सोना भी न बनाऊंगा।

तारा-क्यों?

सुमंत-इसलिए कि तुम्हारे सोने ने बसंत की लड़की से उसकी गाय छीन ली।

तारा-यह कैसे?

सुमंत-बसंत की पुत्री के पास एक गाय थी। बालक उसका दूध पीते थे। कल वे बालक मेरे पास दूध मांगने आए। मैंने पूछा कि तुम्हारी गाय कहां गई, तो कहने लगे कि तारा का एक सेवक आकर तीन टुकड़े सोने के देकर हमारी गाय ले गया। मैं तो यह जानता था कि सोना, बनवाबनवाकर तुम बालकों को बहलाया करोगे, परंतु तुमने तो उनकी गाय ही छीन ली। बस, सोना अब नहीं बन सकता।

दोनों भाई निराश होकर लौट पड़े। राह में यह समझौता हुआ कि विजय तारा को कुछ सिपाही दे दे और तारा विजय को कुछ सोना। कुछ दिन बाद धन के बल से तारा ने भी एक राज्य मोल ले लिया और दोनों भाई राजा बनकर आनंद करने लगे।

8

सुमंत गूंगी बहन के सहित खेती का काम करते हुए अपने मातापिता की सेवा करने लगा। एक दिन उसकी कुतिया बीमार हो गई, उसने तत्काल पहले भूत की दी हुई बूटी उसे खिला दी। वह निरोग होकर खेलनेकूदने लगी। यह हाल देखकर मातापिता ने इसका ब्यौरा पूछा। सुमंत ने कहा कि मुझे एक भूत ने दो बूटियां दी थीं। वह सब परकार के रोगों को दूर कर सकती हैं। उनमें से एक बूटी मैंने कुतिया को खिला दी।

उसी समय दैवगति से वहां के राजा की कन्या बीमार हो गई। राजा ने यह डोंडी पिटवायी थी कि जो पुरुष मेरी कन्या को अच्छा कर देगा, उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाएगा। मातापिता ने सुमंत से कहा कि यह तो बड़ा अच्छा अवसर है। तुम्हारे पास एक बूटी बची है। जाकर राजा की कन्या को अच्छा कर दो और उमर भर चैन करो।

सुमंत जाने पर राजी हो गया। बाहर आने पर देखा कि द्वार पर कंगाल बुयि खड़ी है।

बुयि-सुमंत, मैंने सुना है कि तुम रोगियों का रोग दूर कर सकते हो। मैं रोग के हाथों बहुत दिनों से कष्ट भोग रही हूं। पेट को रोटियां मिलती ही नहीं, दवा कहां से करुं? तुम मुझे कोई दवा दे दो तो बड़ा यश होगा।

सुमंत तो दया का भंडार था, बूटी निकालकर तुरंत बुयि को खिला दी। वह चंगी होकर उसे आशीष देती हुई घर को चली गई।

मातापिता यह हाल सुनकर बड़े दुःखी हुए और कहने लगे कि सुमंत, तुम बड़े मूर्ख हो। कहां राजकन्या और कहां यह कंगाल बुयि! भला इस बुयि को चंगा करने से तुम्हें क्या मिला?

सुमंत-मुझे राजकन्या के रोग दूर करने की भी चिन्ता है। वहां भी जाता हूं।

माता-बूटी तो है ही नहीं, जाकर क्या करोगे?

सुमंत-कुछ चिन्ता नहीं, देखो तो सही क्या होता है।

समदर्शी पुरुष देवरूप होता है। सुमंत के राजमहल पर पहुंचते ही राजकन्या निरोग हो गईं। राजा ने अति परसन्न होकर उसका विवाह सुमंत के साथ कर दिया।

इसके कुछ काल पीछे राजा का देहान्त हो गया। पुत्र न होने के कारण वहां का राज सुमंत को मिल गया।

अब तीनों भाई राजपदवी पर पहुंच गए।

9

विजय का परभाव सूर्य की भांति चमकने लगा। उसने भूसे के सिपाहियों से सचमुच के सिपाही बना दिए। राज्य भर में यह हुक्म जारी कर दिया कि दस घर पीछे एक मनुष्य सेना में भरती किया जाए और कवायदपरेड कराकर सेना को अस्त्रशस्त्र विद्या में ऐसा चतुर कर दिया, कि जब कोई शत्रु सामना करता, तो वह तुरंत उसका विध्वंस कर देता। सारे राजा उसके भय से कांपने लगे, वह अखंड राज करने लगा।

तारा बड़ा बुद्धिमान था। उसने धन संचय करने के निमित्त मनुष्यों, घोड़ों, गाड़ियों, जूतों, जुराबों, वस्त्रों तात्पर्य यह कि जहां तक हो सका, सब व्यावहारिक वस्तुओं पर कर बैठा दिया। धन रखने को लोहे की सलाखों वाले पक्के खजाने बना दिये और चौरीचकारी, लूटमार, धन सम्बन्धी झगड़े बन्द करने के निमित्त अनगिनत कानून जारी कर दिए। संसार में रुपया ही सबकुछ है। रुपये की भूख से सब लोग आकर उसकी सेवा करने लगे।

अब सुमंत मूर्ख की करतूत सुनिए। ससुर का क्रियाकर्म करके उसने राजसी रत्नजटित वस्त्रों को उतारकर, सन्दूक में बन्द कर अलग धर दिए। मोटेझोटे कपड़े पहन लिये और किसानों की भांति खेती का काम करने का विचार किया। बैठेबैठे उसका जी ऊबता था।

भोजन न पचता, बदन में चबीर ब़ने लगी, नींद और भूख दोनों जाती रही। उसने अपनी गूंगी बहन और मातापिता को अपने पास बुला लिया और ठीक पहले की भांति खेती का काम करना आरंभ कर दिया।

मंत्री-आप तो राजा हैं, आप यह क्या काम करते हैं!

सुमंत-तो क्या मैं भूखा मर जाऊं? मुझे तो काम के बिना भूख ही नहीं लगती। करुं तो क्या करुं?

दूसरा मंत्री-(सामने आकर) महाराज, राज्य का परबंध किस परकार किया जाए? नौकरों को तलब कहां से दें? रुपया तो एक नहीं।

सुमंत-यदि रुपया नहीं तो तलब मत दो।

मंत्री-तलब लिये बिना काम कौन करेगा?

सुमंत-काम कैसा, न करने दो। करने को खेतों में क्या काम थोड़ा है। खाद संभालना, समय पर खेती करना, यह सब काम ही हैं कि और कुछ?

इतने में एक मुकदमे वाले सामने आये।

किसान-महाराज, उसने मेरे रुपये चुरा लिये।

सुमंत-कोई बात नहीं, उसको रुपये की जरूरत होगी।

सब लोग जान गये कि सुमंत महामूर्ख है। एक दिन रानी बोली-'पराणनाथ, सब लोग यही कहते हैं कि आप मूर्ख हैं।

सुमंत-तो इसमें हानि ही क्या है?

रानी ने विचारा कि धर्मशास्त्र की यही आज्ञा है कि स्त्री का परमेश्वर पति है। जिसमें वह परसन्न रहे, वही काम करना धर्म है। अतएव वह भी राजा सुमंत के साथ खेती का काम करने लगी।

यह दशा देखकर बुद्धिमान पुरुष सबके-सब अन्य देशों में चले गये। केवल मूर्ख ही मूर्ख यहां रह गए। इस राज्य में रुपया परचलित न था। राजा से लेकर रंक तक खेती का काम करते, आप खाते और दूसरों को खिलाकर परसन्न होते।

10

इधर अधर्मराज बैठे देख रहे हैं कि तीनों भाइयों का सर्वनाश करके भूत अब आते हैं, अब आते हैं; परंतु वहां आता कौन? अधर्म को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है। अंत में सोचविचारकर स्वयं खोज लगाने के लिए चला।

सुमंत के पुराने गांव में जाने पर ूंढ़ने से तीन छेद मिले। अधर्म को मालूम हो गया कि तीनों भूत मारे गए। वह भाइयों की खोज में चला। जाकर देखा तो तीनों भाई राजा बने बैठे हैं। फिर क्या था, जलभुनकर राख ही तो हो गया। दांत पीसकर बोला-देखूं यह सब मेरे हाथ से बचकर कहां जाते हैं? वह एक सेनापति का वेश बदलकर पहले विजय के पास पहुंचा और हाथ जोड़कर विनय की-महाराज, मैंने सुना है कि आप महा शूरवीर हैं। मैं अस्त्रशस्त्र विद्या में अति निपुण हूं। इच्छा है कि आपकी सेवा करके अपना गुण परकट करुं।

विजय उसकी चितवनों से ताड़ गया कि आदमी चतुर और बुद्धिमान है, उसे झट सेनापति की पदवी पर नियुक्त कर दिया।

नवीन सेनापति सेना को ब़ाने का परबन्ध करने लगा। विजय से बोला-महाराज, मेरे ध्यान में राज्य में बहुत लोग ऐसे हैं जो कुछ नहीं करते। राज्य की स्थिरता सेना से ही होती है। इसलिए एक तो सब युवक पुरुषों को रंगरूट भरती करके सेना पहले से पांचगुनी कर देनी चाहिए, दूसरे नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बनाने के वास्ते राजधानी में कारखाने खोलने चाहिए। मैं एक फायर में सौ गोली चलाने वाली बन्दूक और घोड़े, मकान, पुल इत्यादि नष्ट कर देने वाली तोपें बना सकता हूं।

विजय ने परसन्नापूर्वक झट सारी राजधानी में एक आज्ञापत्र जारी कर दिया कि सब लोग रंगरूट भरती किए जायं। नये नमूने की तोपें और बंदूकें बनाने के वास्ते जगहजगह कारखाने खोल दिए। युद्ध की समस्त सामगरी जमा होने पर पहले उसने पड़ोसी राजा को जीता, फिर मैसूर के राजा पर च़ाई का डांका बजा दिया।

पर सौभाग्य से मैसूर के राजा ने विजय का सारा वृत्तांत सुन रखा था। विजय ने तो पुरुषों को ही भरती किया था, उसने स्त्रियों को भी सेना में भरती कर लिया। नये से नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बना डालीं, सेना विजय से चौगुनी कर दी और नवीन कल्पना यह की कि बम के ऐसे गोले बनाए जाएं जो आकाश से छोड़े जाएं और धरती पर फटकर शत्रु की सेना का नाश कर दें।

विजय ने समझा था कि पड़ोसी राजा की भांति छिन में मैसूर के राजा को जीतकर उसकी राज्य छीन लूंगा, परन्तु यहां रंगत ही कुछ और हुई। सेना अभी गोली की मार में भी नहीं पहुंची थी की शत्रु की सेना की स्त्रियों ने आकाश से बम के गोले बरसाने आरम्भ कर दिए विजय की सारी सेना काई की भांति फट गई। आधी वहीं काम आयी, आधी भयभीत होकर भाग गयी। विजय अकेला क्या कर सकता था? भागते ही बनी। मैसूर के राजा ने उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।

विजय का सर्वनाश करके अधर्म तारा के राज्य में पहुंचा और सौदागर का वेश धारण करके वहां एक कोठी खोल दी। जो पुरुष कोई माल बेचने आता, उसे चौगुनेपचगुने दाम पर ले लेता। शीघर ही वहां की परजा मालदार हो गई। तारा यह हाल देखकर बड़ा परसन्न हुआ और कहने लगा कि व्यापार बड़ी वस्तु है। इस सौदागर के आने से मेरा कोष धन से भर गया। किसी बात की कमी नहीं रही।

अब तारा ने एक महल बनाना शुरू किया। उसे विश्वास था कि रुपये के लालच से राज, मजदूर, मसाला सब कुछ सामगरी शीघर ही मिल जायेगी कोई कठिनाई न होगी। परन्तु राजा का महल बनाने के वास्ते कोई न आया। अधर्म सौदागर के पास रुपये की गिनती न थी। उसकी अपेक्षा राजा उससे अधिक मजूरी और दाम नहीं दे सकता। उसका महल न बन सका। तारा को साधारण मकान में ही रहना पड़ा।

इसके पीछे उसने एक बाग लगाना आरम्भ किया। उस सौदागर ने तालाब खुदवाना शुरू कर दिया। सब लोग रुपया अधिक होने के कारण सौदागर के वश में थे। राजा का काम कोई न करता था। बाग भी बीच में ही रह गया। शीतकाल आने पर तारा ने ऊनी वस्त्र आदि खरीदने का विचार किया। सारा संसार छान डाला। जहां पूछा, यही उत्तर मिला कि सौदागर ने कोई वस्त्र नहीं छोड़ा, सारे के सारे खरीदकर ले गया।

यहां तक कि रुपये के परभाव से अधर्म ने राजा के सब नौकर अपने पास खींच लिये। राजा भूखों मरने लगा। क्रुद्ध होकर उसने सौदागर को अपनी राजधानी से निकाल दिया। अधर्म ने सीमा पर जाकर डेरा जमाया। तारा को कुछ करतेधरते नहीं बनता था। उसे उपवास किए तीन दिन बीत चुके थे कि विजय आकर सम्मुख खड़ा हो गया।

विजय-भाई तारा, मैं तो मर चुका। मेरी सेना, राजपाट सब नष्ट हो गया। मैसूर के राजा ने मेरी राजधानी पर अपना अधिकार कर लिया, भागकर तुम्हारे पास आया हूं, मेरी कुछ सहायता कीजिए।

तारा-सहायता की एक ही कही। यहां आप अपनी जान पर आ बनी है। उपवास किए तीन दिन हो चुके हैं, खाने को अन्न तक तो मिलता नहीं, तुम्हारी सहायता किस परकार करुं?

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