दिल्ली नगर में भागीरथ नाम का युवक सौदागर रहता था। वहाँ उसकी अपनी दो दुकानें और एक रहने का मकान था। वह सुंदर था। उसके बाल कोमल, चमकीले और घुँघराले थे। वह हँसोड़ और गाने का बड़ा प्रेमी था। युवावस्था में उसे मद्य पीने की बान पड़ गई थी। अधिक पी जाने पर कभी कभी हल्ला भी मचाया करता था, परंतु विवाह कर लेने पर मद्य पीना छोड़ दिया था।
गर्मी में एक समय वह कुंभ पर गंगा जाने को तैयार हो, अपने बच्चों और स्त्री से विदा माँगने आया।
स्त्री- प्राणनाथ, आज न जाइए, मैंने बुरा सपना देखा है।
भागीरथ- प्रिये, तुम्हें भय है कि मैं मेले में जाकर तुम्हें भूल जाऊँगा ?
स्त्री- यह तो मैं नहीं जानती कि मैं क्यों डरती हूँ, केवल इतना जानती हूँ कि मैंने बुरा स्वप्न देखा है। मैंने देखा है कि जब तुम घर लौटे हो तो तुम्हारे बाल श्वेत हो गए हैं।
भागीरथ- यह तो सगुन है। देख लेना मैं सारा माल बेच, मेले से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें लाऊँगा।
यह कह गाड़ी पर बैठ, वह चल दिया। आधी दूर जाकर उसे एक सौदागर मिला, जिससे उसकी जान पहचान थी। वे दोनों रात को एक ही सराय में ठहरे। संध्या समय भोजन कर पास की कोठरियों में सो गए।
भागीरथ को सबेरे जाग उठने का अभ्यास था। उसने यह विचार करके कि ठंडे ठंडे राह चलना सुगम होगा, मुँह अँधेरे उठ, गाड़ी तैयार कराई और भटियारे के दाम चुका कर चलता बना। पच्चीस कोस जाने पर घोड़ों को आराम देने के लिए एक सराय में ठहरा और आँगन में बैठकर सितार बजाने लगा।
अचानक एक गाड़ी आई- पुलिस का एक कर्मचारी और दो सिपाही उतरे। कर्मचारी उसके समीप आ कर पूछने लगा कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो? वह सब कुछ बतला कर बोला कि आइए, भोजन कीजिए। परंतु कर्मचारी बारबार यही पूछता था कि तुम रात को कहाँ ठहरे थे? अकेले थे या कोई साथ था? तुमने साथी को आज सवेरे देखा या नहीं। तुम मुँह अँधेरे क्यों चले आए?
भागीरथ को अचंभा हुआ कि बात क्या है? यह प्रश्न क्यों पूछे जा रहे हैं? बोला- आप तो मुझसे इस भाँति पूछते हैं, जैसे मैं कोई चोर या डाकू हूँ। मैं तो गंगास्नान करने जा रहा हूँ। आपको मुझसे क्या मतलब है?
कर्मचारी- मैं इस प्रांत का पुलिस अफसर हूँ, और यह प्रश्न इसलिए करता हूँ कि जिस सौदागर के साथ तुम कल रात सराय में सोए थे, वह मार डाला गया। हम तुम्हारी तलाशी लेने आए हैं।
यह कह वह उसके असबाब की तलाशी लेने लगा। एकाएक थैले में से एक छुरा निकला, वह खून से भरा हुआ था। यह देखकर भागीरथ डर गया।
कर्मचारी- यह छुरा किसका है ? इस पर खून कहाँ से लगा ?
भागीरथ चुप रह गया, उसका कंठ रुक गया। हिचकता हुआ कहने लगा- मेरा नहीं है। मैं नहीं जानता।
कर्मचारी- आज सवेरे हमने देखा कि वह सौदागर गला कटे चारपाई पर पड़ा है। कोठरी अंदर से बंद थी, सिवाय तुम्हारे भीतर कोई न था। अब यह खून से भरा हुआ छुरा इस थैले में से निकला है। तुम्हारा मुख ही गवाही दे रहा है। बस, तुमने ही उसे मारा है। बतलाओ, किस तरह मारा और कितने रुपये चुराए हैं ?
भागीरथ ने सौगंध खाकर कहा- मैंने सौदागर को नहीं मारा। भोजन करने के पीछे फिर मैंने उसे नहीं देखा। मेरे पास अपने आठ हजार रुपये हैं। यह छुरा मेरा नहीं।
परंतु उसकी बातें उखड़ी हुई थीं, मुख पीला पड़ गया था और वह पापी की भाँति भय से काँप रहा था।
पुलिस अफसर ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि इसकी मुस्कें कसकर गाड़ी में डाल दो। जब सिपाहियों ने उसकी मुस्कें कसीं, तो वह रोने लगा। अफसर ने पास के थाने पर ले जाकर उसका रुपया पैसा छीन, उसे हवालात में दे दिया।
इसके बाद दिल्ली में उसके चाल-चलन की जाँच की गई। सब लोगों ने यही कहा कि पहले वह मद्य पीकर बकझक किया करता था, पर अब उसका आचार बहुत अच्छा है। अदालत में तहकीकात होने पर उसे रामपुर निवासी सौदागर का वध करने और बीस हजार रुपये चुरा लेने का अपराधी ठहराया गया।
भागीरथ की स्त्री को इस बात पर विश्वास न होता था। उसके बालक छोटे-छोटे थे। एक अभी दूध पीता था। वह सबको साथ लेकर पति के पास पहुँची। पहले तो कर्मचारियों ने उसे उससे मिलने की आज्ञा न दी, परंतु बहुत विनय करने पर आज्ञा मिल गई। और पहरे वाले उसे कैद घर में ले गए। ज्यों ही उसने अपने पति को बेड़ी पहने हुए चोरों और डाकुओं के बीच में बैठा देखा, वह बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ी। बहुत देर में सुध आई। वह बच्चों सहित पति के निकट बैठ गई और घर का हाल कह कर पूछने लगी कि यह क्या बात है ? भागीरथ ने सारा वृतांत कह सुनाया।
स्त्री- तो अब क्या हो सकता है ?
भागीरथ- हमें महाराज से विनय करनी चाहिए कि वह निरपराधी को जान से न मारें।
स्त्री- मैंने महाराज से विनय की थी, परंतु वह स्वीकार नहीं हुई।
भागीरथ ने निराश होकर सिर झुका लिया।
स्त्री- देखा, मेरा सपना कैसा सच निकला! तुम्हें याद है न, मैंने तुमको उस दिन मेले जाने से रोका था। तुम्हें उस दिन न चलना चाहिए था, लेकिन मेरी बात न मानी। सच सच बताओ, तुमने तो उस सौदागर को नहीं मारा न?
भागीरथ- क्या तुम्हें भी मेरे ऊपर संदेह है?
यह कह कर वह मुँह ढाँप रोने लगा। इतने में सिपाही ने आकर स्त्री को वहाँ से हटा दिया और भागीरथ सदैव के लिए अपने परिवार से विदा हो गया।
घर वालों के चले जाने पर जब भागीरथ ने यह विचारा कि मेरी स्त्री भी मुझे अपराधी समझती है तो मन में कहा- बस, मालूम हो गया, परमात्मा के बिना और कोई नहीं जान सकता कि मैं पापी हूँ या नहीं। उसी से दया की आशा रखनी चाहिए। फिर उसने छूटने का कोई यत्न नहीं किया। चारों ओर से निराश हो कर ईश्वर के ही भरोसे बैठा रहा।
भागीरथ को पहले तो कोड़े मारे गए। जब घाव भर गए तो उसे लोहग बंदीखाने में भेज दिया गया।
वह छब्बीस वर्ष बंदीखाने में पड़ा रहा। उसके बाल पककर सन के से हो गए, कमर मोटी हो गई, देह घुल गई, सदैव उदास रहता। न कभी हँसता, न बोलता, परंतु भगवान का भजन नित्य किया करता था।
वहाँ उसने दरी बुनने का काम सीखकर कुछ रुपया जमा किया और भक्तमाल मोल ले ली। दिन भर काम करने के बाद साँझ को जब तक सूरज का प्रकाश रहता, वह पुस्तक का पाठ करता और इतवार के दिन बंदीखाने के निकट वाले मंदिर में जाकर पूजापाठ भी कर लेता था। जेल के कर्मचारी उसे सुशील जानकर उसका मान करते थे। कैदी लोग उसे बू़्ढ़े बाबा अथवा महात्मा कहकर पुकारा करते थे। कैदियों को जब कभी कोई अर्जी भेजनी होती, तो वे उसे अपना मुखिया बनाते और अपने झगड़े भी उसी से चुकाया करते।
उसे घर का कोई समाचार न मिलता था। उसे यह भी न मालूम था कि स्त्री-बालक जीते हैं या मर गए।
एक दिन कुछ नए कैदी आए। संध्या समय पुराने कैदी उनके पास आकर पूछने लगे कि भाई, तुम कहाँ से आए हो और तुमने क्या क्या अपराध किए हैं ? भागीरथ उदास बैठा सुनता रहा। नए कैदियों में एक साठ वर्ष का हट्टा-कट्टा आदमी, जिसके दाढ़ी-बाल खूब छंटे हुए थे, अपनी रामकहानी यों सुना रहा था !
'भाइयो, मेरे मित्र का घोड़ा एक पेड़ से बंधा हुआ था। मुझे घर जाने की जल्दी पड़ी हुई थी। मैं उस घोड़े पर सवार होकर चला गया। वहाँ जाकर मैंने घोड़ा छोड़ दिया। मित्र कहीं चला गया था। पुलिस वालों ने चोर ठहराकर मुझे पकड़ लिया। यद्यपि कोई यह नहीं बतला सका कि मैंने किसका घोड़ा चुराया और कहाँ से, फिर भी चोरी के अपराध में मुझे यहाँ भेज दिया है। इससे पहले एक बार मैंने ऐसा अपराध किया था कि मैं लोहग में भेजे जाने लायक था, परंतु मुझे उस समय कोई नहीं पकड़ सका। अब बिना अपराध ही यहाँ भेज दिया गया हूँ।
एक कैदी- तुम कहाँ से आए हो?
नया कैदी- दिल्ली से। मेरा नाम बलदेव सिंह है।
भागीरथ- भला बलदेव सिंह, तुम्हें भागीरथ के घर वालों का कुछ हाल मालूम है, जीते हैं कि मर गए?
बलदेव- जानना क्या? मैं उन्हें भलीभाँति जानता हूँ। अच्छे मालदार हैं। हाँ उनका पिता यहीं कहीं कैद है। मेरे ही जैसा अपराध उनका भी था। बू़ढ़े बाबा, तुम यहाँ कैसे आए?
भगीरथ अपनी विपत्ति-कथा न कही। केवल हाय कहकर बोला- मैं अपने पापों के कारण छब्बीस वर्ष से यहाँ पड़ा सड़ रहा हूँ।
बलदेव- क्या पाप, मैं भी सुनूं?
भागीरथ- भाई, जाने दो, पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
वह और कुछ न कहना चाहता था, परंतु दूसरे कैदियों ने बलदेव को सारा हाल कह सुनाया कि वह एक सौदागर का वध करने के अपराध में यहाँ कैद है। बलदेव ने यह हाल सुना तो भागीरथ को ध्यान से देखने लगा। घुटने पर हाथ मारकर बोला- वाह वाह, बड़ा अचरज है! लेकिन दादा, तुम तो बिल्कुल बूढ़े हो गए।
दूसरे कैदी बलदेव से पूछने लगे कि तुम भागीरथ को देखकर चकित क्यों हुए, तुमने क्या पहले कहीं उसे देखा है? परंतु बलदेव ने उत्तर नहीं दिया।
भागीरथ के चित्त में यह संशय उत्पन्न हुआ कि शायद बलदेव रामपुरी सौदागर के असली मारने वाले को जानता है। बोला- बलदेव सिंह, क्या तुमने यह बात सुनी है और मुझे भी पहले कहीं देखा है।
बलदेव- वह बातें तो सारे संसार में फैल रही हैं। मैं किस तरह न सुनता; बहुत दिन बीत गए, मुझे कुछ याद नहीं रहा।
भागीरथ- तुम्हें मालूम है कि उस सौदागर को किसने मारा था?
बलदेव- (हँसकर) जिसके थैले में छुरा निकला, वही उसका मारने वाला। यदि किसी ने थैले में छुरा छिपा भी दिया हो, तो जब तक कोई पकड़ा न जाए, उसे चोर कौन कह सकता है? थैला तुम्हारे सिरहाने धरा था। यदि कोई दूसरा पास आकर छुरा थैले में छिपाता तो तुम अवश्य जाग उठते।
यह बातें सुनकर भागीरथ को निश्चय हो गया कि सौदागर को इसी ने मारा है। वह उठकर वहाँ से चल दिया, पर सारी रात जागता रहा। दुःख से उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे अनेक प्रकार की बातें याद आने लगीं। पहले स्त्री की उस समय की सूरत दिखाई दी जब वह उसे मेले जाने को मना कर रही थी। सामने ऐसा जान पड़ा कि वह खड़ी है। उसकी बोली और हँसी तक सुनाई दी। फिर बालक दिखाई पड़े, फिर युवावस्था की याद आई, कितना प्रसन्नचित्त था, कैसा आनंद से द्वार पर बैठा सितार बजाया करता था। फिर वह सराय दिखाई दी, जहाँ वह पकड़ा गया था। तब वह जगह सामने आई, जहाँ उस पर कोड़े लगे थे। फिर बेड़ी और बंदीखाना, फिर बु़ढ़ापा और छब्बीस वर्ष का दुःख। यह सब बातें उसकी आँखों में फिरने लगीं। वह इतना दुःखी हुआ कि जी में आया कि अभी प्राण दे दूँ।
'हाय, इस बलदेव चंडाल ने यह क्या किया! मैं तो अपना सर्वनाश करके भी इससे बदला अवश्य लूँगा।'
सारी रात भजन करने पर भी उसे शांति नहीं हुई। दिन में उसने बलदेव को देखा तक नहीं। पंद्रह दिन बीत गए, भागीरथ की यह दशा थी कि न रात को नींद, न दिन को चैन। क्रोधाग्नि में जल रहा था।
एक रात वह जेलखाने में टहल रहा था कि उसने कैदियों के सोने के चबूतरे के नीचे से मिट्टी गिरते देखी। वह वहीं ठहर गया कि देखूँ मिट्टी कहाँ से आ रही है। सहसा बलदेव चबूतरे के नीचे से निकल आया और भय से काँपने लगा। भागीरथ आँखें मूँदकर आगे जाना चाहता था कि बलदेव ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- देखो, मैंने जूतों में मिट्टी भर के बाहर फेंककर यह सुरंग लगाई है, चुप रहना। मैं तुमको यहाँ से भगा देता हूँ। यदि शोर करोगे तो जेल के अफसर मुझे जान से मार डालेंगे, परंतु याद रखो कि तुम्हें मारकर मरुँगा, यों नहीं मरता।
भागीरथ अपने शत्रु को देखकर क्रोध से काँप उठा और हाथ छुड़ाकर बोला- मुझे भागने की इच्छा नहीं, और मुझे मारे तो तुम्हें छब्बीस वर्ष हो चुके। रही यह हाल प्रकट करने की बात, जैसी परमात्मा की आज्ञा होगी, वैसा होगा।
अगले दिन जब कैदी बाहर काम करने गए तो पहरे वालों ने सुरंग की मिट्टी बाहर पड़ी देख ली। खोज लगाने पर सुरंग का पता चल गया। हाकिम सब कैदियों से पूछने लगे। किसी ने न बतलाया, क्योंकि वे जानते थे कि यदि बतला दिया तो बलदेव मारा जाएगा। अफसर भागीरथ को सत्यवादी जानते थे, उससे पूछने लगे- बूढ़े बाबा, तुम सच्चे आदमी हो; सच बताओ कि यह सुरंग किसने लगाई है?
बलदेव पास ही ऐसे खड़ा था कि कुछ जानता ही नहीं। भागीरथ के होंठ और हाथ काँप रहे थे। चुपचाप विचार करने लगा कि जिसने मेरा सारा जीवन नाश कर दिया, उसे क्यों छिपाऊँ? दुःख का बदला दुःख उसे अवश्य भोगना चाहिए, परंतु बतला देने पर फिर वह बच नहीं सकता। शायद यह सब मेरा भरम मात्र हो, सौदागर को किसी और ने ही मारा हो। यदि इसने ही मारा तो इसे मरवा देने से मुझे क्या लाभ होगा?
अफसर- बाबा, चुप क्यों हो गए? बतलाते क्यों नहीं?
भागीरथ- मैं कुछ नहीं बतला सकता, आप जो चाहें सो करें।
हाकिम ने बार-बार पूछा, परंतु भागीरथ ने कुछ भी नहीं बतलाया। बात टल गई।
उसी रात भागीरथ जब अपनी कोठरी में लेटा हुआ था, बलदेव चुपके से भीतर आकर बैठ गया। भागीरथ ने देखा और कहा- बलदेव सिंह, अब और क्या चाहते हो? यहाँ तुम क्यों आए?
बलदेव चुप रहा।
भागीरथ- तुम क्या चाहते हो? यहाँ से चले जाओ, नहीं तो मैं पहरे वाले को बुला लूँगा।
बलदेव- (पाँव पर पड़कर) भागीरथ, मुझे क्षमा करो, क्षमा करो।
भागीरथ- क्यों?
बलदेव- मैंने ही उस सौदागर को मारकर छुरा तुम्हारे थैले में छिपाया था। मैं तुम्हें भी मारना चाहता था। परंतु बाहर से आहट हो गई, मैं छुरा थैले में रखकर भाग निकला।
भागीरथ चुप हो गया, कुछ नहीं बोला।
बलदेव- भाई भागीरथ, भगवान के वास्ते मुझ पर दया करो, मुझे क्षमा करो। मैं कल अपना अपराध अंगीकार कर लूँगा। तुम छूटकर अपने घर चले जाओगे।
भागीरथ- बातें बनाना सहज है। छब्बीस वर्ष के इस दुःख को देखो, अब मैं कहाँ जा सकता हूँ? स्त्री मर गई, लड़के भूल गए, अब तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं है।
बलदेव धरती से माथा फोड़, रो-रो कर कहने लगा- मुझे कोड़े लगने पर भी इतना कष्ट नहीं हुआ था, जो अब तुम्हें देखकर हो रहा है। तुमने दया करके सुरंग की बात नहीं बतलाई। क्षमा करो, क्षमा करो, मैं अत्यंत दुःखी हो रहा हूँ!
यह कह बलदेव धाड़ मारकर रोने लगा। भागीरथ के नेत्रों से भी जल की धारा बह निकली। बोला- पूर्ण परमात्मा, तुम पर दया करें, कौन जाने कि मैं अच्छा हूँ अथवा तुम अच्छे हो। मैंने तुम्हें क्षमा किया।
अगले दिन बलदेव सिंह ने स्वयं कर्मचारियों के पास जाकर सारा हाल सुनाकर अपना अपराध मान लिया, परंतु भागीरथ को छोड़ देने का जब परवाना आया, तो उसका देहांत हो चुका था।